कल्याणकारी माँ धारी देवी की पौराणिक गाथा

माँ धारी देवी मंदिर श्रीकोट, श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल) से करीब 15 किमी0 की दूर कलियासौड़ मार्ग व रुद्रप्रयाग से करीब 26 किमी0 की दूरी पर स्थित है। यह मार्ग प्राकृतिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। बरसात के दौरान यहाँ भूस्खलन की स्थिति बनी रहती है, लेकिन इस मार्ग को काफी हद तक सीमित व नियंत्रित किया जाता रहता है।

माँ धारी देवी प्रतिमां
धारी देवी "धार" शब्द से ही निकलता है। यह स्थल अलकनन्दा नदी के समीप बसा हुआ है। मंदिर में स्थित पुजारियों के अनुसार यह गाथा है कि एक रात जब भारी बारिश के चलते नदी में जल बहाव तेज था। धारी गाँव के समीप एक स्त्री की बहुत तेज ध्वनि सुनाई दी जिससे गाँव के लोग सहज गए। जब गाँव के लोगों ने उस स्थान के समीप जाकर देखा तो वहाँ पानी में तैरती हुई एक मूर्ति दिखाई दी। किसी तरह पानी से वो मूर्ति निकालकर ग्रामीणों ने निकली तो उसी दौरान देवी आवाज ने उन्हें मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित करने के आदेश दिये, धारी गाँव के लोगों ने इस स्थल को धारी देवी का नाम दिया।

मंदिर में माँ धारी की पूजा-अर्चना धारी गाँव के पंडितों द्वारा किया जाता है। यहाँ के तीन भाई पंडितों द्वारा चार-चार माह पूजा अर्चना की जाती है। पुजारियों के अनुसार मंदिर में माँ काली की प्रतिमां द्वापर युग से ही स्थापित है। कालीमठ एवं कालीस्य मठों में माँ काली की प्रतिमां क्रोध मुद्रा में है, परन्तु धारी देवी मंदिर में काली की प्रतिमां शांत मुद्रा में स्थित है। मंदिर में स्थित प्रतिमाएँ साक्षात व जाग्रत के साथ ही पौराणिककाल से ही विधमान है।

पौराणिक धारी देवी मंदिर
जनश्रुति के अनुसार मंदिर में स्थित माँ काली प्रतिदिन तीन रूपों में परिवर्तित होती है। प्रातः कन्या, दोपहर में युवती व सायंकाल में वृद्धा रूप धारण करती है। मंदिर में प्रतिवर्ष चैत्र व शारदीय नवरात्रा में हजारों श्रद्धालु अपनी मनौतियों के लिए दूर-दूर से पहुँचते हैं। मंदिर में सबसे ज्यादा नवविवाहित जोड़े अपनी मनोकामना हेतु माँ का आशीर्वाद लेने पहुँचते हैं। माँ धारी देवी जनकल्याणकारी होने के साथ ही दक्षिणी काली माँ भी कहा जाता है।

माँ धारी देवी मंदिर का इतिहास पौराणिक होने के साथ ही रौचक भी है। वर्ष 1807 से ही मंदिर में अनेकों प्राचीन अवशेष हैं, जो इसके साक्ष्य को प्रमाणित करती है। हालंकि 1807 से पहले बाढ़ के दौरान कुछ साक्ष्य नष्ट हो गए थे। बताया जाता है कि जब शंकराचार्य जी इस मार्ग से ज्योतिर्लिंग की स्थापना हेतु जोशिमठ जाते समय रात्री विश्राम श्रीनगर में किया। इस दौरान अचानक उनकी तबीयत बहुत खराब हो गयी थी, तत्पश्चात उन्होने माँ धारी देवी की आराधना की, जिसके कुछ समय बाद ही उनकी तबीयत में अचानक सुधार देख शंकराचार्य ने माँ धारी देवी की आराधना शुरू की।

नवनिर्मित धारी देवी मंदिर
वर्ष 1985 में श्रीनगर जल-विधुत परियोजना की स्वीकृति के पश्चात इस स्थान को भी डेम के अंतर्गत शामिल किया गया, जिसके बाद से ही स्थानीय लोगों द्वारा मंदिर को बचाने के हर एक प्रयास किए गए। आंदोलन के साथ ही राज्य, केंद्र सरकार व राष्ट्रपति को भी ज्ञापन भेजा गया, परन्तु किसी को भी आस्था के इस केंद्र को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। आंदोलन में साधु-संतों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों सहित उत्तराखंड के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया।

इस जल विधुत परियोजना की ऊंचाई 63 मीटर करने की योजना है। माँ धारी देवी भी इसी परियोजना की चपेट में रहा था, जिसके कारण परियोजना समिति द्वारा मंदिर को उक्त स्थल से हटाने का निर्णय लिया गया और मंदिर के उक्त स्थल से ही उसी के बराबरी में ऊंचा उठाया गया व नवनिर्माण मंदिर की स्थापना की गयी। वर्तमान में मंदिर का भाग नदी के ऊपरी सतह से काफी ऊंचा उठाया गया है।

16 जून, 2013 को जब माँ धारी देवी की प्रतिमां को उनके विस्थापित स्थान से हटाया गया। जिस दिन माँ की मूर्ति को उनके मूल स्थान से हटाया जा रहा था तो उसके कुछ समय पश्चात ही उत्तराखंड के चारों धामों में तबाही मच गयी, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान केदारनाथ में हुआ, तबाही से चारों ओर मौत का सैलाब नजर आ रहा था। इस समायावधि व दिन को संयोग के साथ ही संजोग कहें, इसको लेकर स्थानीय लोगों के साथ ही कई अन्य लोगों ने इसे माँ धारी की मूर्ति को हटाने को लेकर माँ धारी के प्रकोप से यह विनाश हुआ ऐसा माना जाता रहा है।

नारी शक्ति की प्रेरणा है ममता रावत

ममता रावत अपने परिवार के साथ (दायीं ओर)
ममता रावत वह सख्सियत है, जो अपने साहस के लिए जानी जाती है। लोगों की मदद हो या पर्वतों के कठिन राहों को आसानी से पार करना यह उसका परिचय बताता है। आज उनका नाम उत्तराखंड के इतिहास के साथ ही पूरे देश को उन पर गर्व है। ममता का बचपन कठिनाइयों व चुनौतियों से भरा रहा, संघर्ष जीवन के दौर ने उनको काफी हद तक इस तरह कठोर बना दिया था।

ममता का जन्म उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के अंतर्गत ग्राम बंकोली में हुआ। बचपन में ही उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया, पारिवारिक आर्थिक कमजोरी के कारण उनके ऊपर अतिरिक्त जिम्मेदारियों का दबाव पड़ गया। बचपन में माँ की बीमारी के चलते अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दी। कुछ समय पश्चात उन्होने  स्थानीय नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में पर्वतारोही का बसिक प्रशिक्षण लिया।

ममता प्रशिक्षण के साथ ही अपने परिवार की जिम्मेदारियों को भी भली-भाँति निभाती रही, लेकिन राज्य सरकार की ओर से उनको कोई आर्थिक मदद नहीं मिली, लेकिन उनके साहस की चर्चा आज सभी करते हैं, उत्तरकाशी के साथ ही उनको आज पूरा देश सलाम करता है, आइये जानते हैं उनके साहस की कुछ बातें:

ममता रावत
16 जून, 2013 की वो भयानक रात शायद ही कोई भूल पाएगा जब पूरा उत्तराखण्ड प्रकृति के प्रकोप से कराह रहा था। हजारों घर-परिवार काल के इस प्रकोप में लीन हो गए, प्रकृति के इस प्रकोप से लोग इतने लाचार थे कि अपने बचाव के लिए कुछ सोच पाना भी मुश्किल हो रहा था। गाँव-परिवार उजाड़ गए, लोग डरे और सहमें हुए थे। कोई भी भूलकर मदद के लिए साहस दिखाना शायद ही किसी के लिए सामान्य होता।

चारों ओर तबाही ही तबाही थी, प्रकृति का कहर इस कदर टूटा कि कोई भी इससे वंचित न रहा। इसी तबाही में ममता ने भी अपना घर बर्बाद होते देखा लेकिन कहते हैं कि हौंसला सभी जगह काम आते हैं ममता इसकी एक मिशल है। उन्होने प्रकृति के इस प्रकोप को अपनी नियति बना देने के बजाय लोगों को इस त्रादसी में लोगों की मदद के लिए अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना आगे बढ़ी।

जब द्यारा में 30 बछों के एक ग्रुप को एडवेंचर कैंप द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इस दौरान अचानक बढ़ का जलस्तर बढ़ने के साथ ही तेज बहाव के कारण रास्ते टूट गए और पल भी बह गया था। ममता अकेले ही इन बच्चों की मदद के लिए आगे बढ़ी। इस दौरान उन्होने अकेले ही वहाँ से बच्चों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया और फिर उसी स्थान पर लोगों की मदद के लिए निकल पड़ी। इस दौरान वहाँ बाढ़ में फँसकर बेहोश हुई एक बुजुर्ग महिला को अपनी पीठ पर लादकर विषम रास्ते वाले पहाड़ों से होकर वह लगातार 03 घंटे तक भागती रही ताकि उस महिला को वह हेलीकाप्टर से किसी अन्य स्थान पर सुरक्षित पहुंचाया जा सके। इस विकट परिस्थिति में वह लोगों को राहत शिविर तक कंबल, खाना, पानी व अन्य सुविधाओं को अपने माध्यम से सेवा देती रही, उनके इस काम को लोगों ने खूब सराहा। 

ममता के इस साहसिक कार्य की चर्चा उन दिनों देश के सभी समाचार पत्रों व टीवी चैनलों के माध्यम खूब सराहा गया। इसके साथ ही नेहरू पर्वतारोहण संस्थान ने भी उनकी खूब सराहा गया। 03 जनवरी 2016 को स्टार प्लस चैनल के कार्यक्रम जिसको बॉलीवुड के महानायक श्री अमिताभ बच्चन जो कि इस कार्यक्रम को होस्ट कर रहे थे, उनके द्वारा ममता रावत को इस कार्यक्रम में बुलाया गया व उनको लोगों की मदद करने हेतु पुरस्कारित किया गया व उनके कार्य की खूब सराहना की गयी। आज ममता रावत नारी शक्ति की एक पहचान ही नहीं बल्कि खुद को कमजोर समझने वाली महिलाओं के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत है।

जागर महिला के रूप में विख्यात बसंती देवी

अपने जागर विधाओं से सबको मंत्रमुग्ध करने वाली उत्तराखण्ड एक मात्र जागर गायिका महिला बसन्ती देवी का जन्म 1953 में देवाल ब्लॉक के अंतर्गत ग्राम ल्वाणी, चमोली जनपद में हुआ। अपने जागर गीतों से अपनी विख्याति की इस पड़ाव में उन्होने साधारण जीवन के तहत कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा था। बसन्ती देवी जो कि पाँचवीं तक अपनी शिक्षा पूर्ण कर पायी थी और मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह श्री रणजीत सिंह के साथ हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात वह अपने पति के साथ जालंधर चली गयी, जहां पर कुछ समय बिताने के बाद उन्होने संगीत की शिक्षा ग्रहण की।

जब उनकी इच्छा संगीत के क्षेत्र में और आगे बढ़ने की हुई तो उन्होने संगीत की परीक्षा देने की सोची, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह इस परीक्षा में शामिल न हो सकी, इससे वह हताश हुई और कुछ दिनों बाद अपने गाँव वापस आ गयी। जिस दौरान वह अपने गाँव लौटी तो उस समय सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में आंदोलनों का दौर चल रहा था। समय के साथ ही वह भी आंदोलनों में शामिल होने लगी और आंदोलनों से प्रभावित होकर उन्होने आंदोलनों पर गीत लिखने शुरू कर दिये। आंदोलन में शामिल लोगों को एकत्रित कर नुक्कड़, गीत व जागर करने लगे, जिससे लोग उनसे बहुत प्रभावित होने लगे और उनके गीतों की खूब प्रशंसा होने लगी। लोगों के निवेदन पर उन्होने आगे संगीत की शिक्षा लेने की सोची।

1996 में स्वर परीक्षा में शामिल होने के लिए गयी और सफलता भी मिली, जिसके बाद उनको आकाशवाणी पर गायन के लिए आमंत्रित किया गया। रेडियो के उस दौर में जब लोगों तक उनकी आवाज पहुंची तो पूरे उत्तराखण्ड में उनकी प्रशंसा होने लगी। उन दिनों लोग ज़्यादातर रेडियों पर निर्भर होते थे। हर रोज जब उनकी प्रस्तुति आकाशवाणी पर प्रसारित की जाती थी तो लोगों में भी उनके गीतों का बेसब्री से इंतजार रहता था।
1998 में पहली बार गढ़वाल महासभा ने उनको गायन के लिए आमंत्रित किया। यह बंसन्ती देवी का पहला लोकमंच कार्यक्रम था। यहाँ पर लोगों ने उनके गायन को सामने देखकर लोगों में काफी उत्साह था। यहाँ पर गायन के बाद लोगों ने उनकी प्रस्तुति की खूब सराहना की। आज भी उत्तराखण्ड में जागर प्रस्तुति के लिए उनको सबसे पहले स्थान दिया जाता है। जिसके कारण यह भी है कि वह उत्तराखण्ड की पहली ऐसी महिला है जिसने जागर में अपनी विख्याति बखूबी निभाई है।

बसन्ती देवी ने पूरे उत्तराखण्ड में अपनी गायन ख्याति से सबको मंत्रमुग्ध किया ही इसके साथ ही कारोबार क्षेत्र में भी उनको ब्रांड अम्बेस्ड़र बनाने की होड लगी। वर्तमान में वह उत्तरांचल ग्रामीण बैंक की ब्रांड अम्बेस्ड़र हैं। इसके साथ ही उनको अखिल गढ़वाल सभा देहरादून, रूपकुंड महोत्सव देवाल, पंडित विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान देहरादून, उत्तराखण्ड शोध संस्थान देहरादून व उत्तरायणी जन कल्याण समिति बरेली द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

पारम्परिक लोक संगीत व जगरों में उनकी संवेदना तो रही ही है, इसके साथ ही उनके पहनावे में भी उत्तराखण्ड की पारम्परिक संस्कृति व भेष-भूषा अपने जीवन के लोक पारम्परिक स्तर पर जीना ही पसंद कराते हैं।

औली


शीतकालीन शीतकालीन व हिमक्रीडा के लिए विश्व में प्रसिद्ध औली चमोली जिले के अंतर्गत जोशिमठ से 15 किमी0 व 2500 से 3250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ हिमपात और हिमक्रीडा के लिए शीतकालीन में हजारों की संख्या में पर्यटक दूर-दूर से आते हैं। प्रकृति के सौन्दर्य से सुसज्जित औली में 5 किमी0 लंबे और 2 किमी0 चौड़े इस क्रीडा केंद्र में विश्व की आधुनिकतम क्रीडा उपकरणों की उचित व्यवस्था की गयी है। देश-विदेश से यहाँ पर्यटक आते रहते हैं व अपने साहसिक करतबों का प्रदर्शन करते हैं। इस पर्वत पर मखमली घास व पुष्प पाये जाते हैं साथ ही बुग्याल के लिए भी औली जाना जाता है।

माह जनवरी से मार्च तक यहाँ विविध साहसिक खेल आयोजित होते हैं। गढ़वाल मण्डल विकास निगम द्वारा यहाँ पर रज्जु मार्ग का भी निर्माण किया गया है, जिसकी लंबाई लगभग 4200 मीटर है। औली से प्रकृति के नजारे को देखकर मन को जो शांति और हर्षौल्लास की अनुभूति प्राप्त होती है। यहाँ से नन्दा देवी पर्वत, कामत पर्वत, त्रिशूल पर्वत व अन्य बर्फीली चोटियों के सौन्दर्य से नजरें आसानी से नहीं हटती।

औली से 41 किमी0 दूर नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान है। यहाँ से जोशिमठ मार्ग से बद्रीनाथ, तपोवन व गोपेश्वर के लिए भी मोटर मार्ग हैं। यहाँ पर चोटियों की ऊपरी-निचली ढलानों के मार्गों से यहाँ की यात्रा की जा सकती है। यहाँ पर गहरी ढलान लगभग 1,642 फुट व ऊँची चढ़ाई 2625 फुट पर है। यहाँ पर रुकने की उचित व्यवस्था है, इसमें गढ़वाल मण्डल विकास निगम का अतिथि गृह है।

औली बहुत ही अठिनाइयों भरा पर्यटन स्थल है। जो भी पर्यटक यहाँ घूमने आते हैं उनको मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ होने अति आवश्यक है। औली जो कि अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित है, तो ठंड भी यहाँ बहुत होती है, जो भी पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं वे अत्यधिक गर्म कपड़े, जैकेट, दस्ताने, गर्म पैंट, व गर्म जुराबें होनी बहुत आवश्यक है। इसके साथ ही घूमने के लिए सिर और कान को भी पूर्ण रूप से ढक लें, ताकि ठंडी व बर्फीली हवाओं का असर कम पड़े। बर्फ कि सफ़ेद चादर से ढके पर्वतों को नग्न आँखों से निहारने पर कुछ कठिनाई और मुश्किलों का सामना जरूर करना पड़ सकता है, जिसके लिए काले चश्मों का प्रयोग उचित रहेगा।

यहाँ पर घूमने आए पर्यटकों को अपने शारीरिक संतुलन का भी विशेष ध्यान रखना होता है। ठंड में शरीर की नमी कम होने के कारण शरीर में समस्या उत्पन्न होने लगती है, जिससे बचाने के लिए निरंतर पानी का सेवन कर, अन्य लाभकारी तरल (जूस) का प्रयोग करें।

गढ़वाल के 52 प्राचीन गढ़

चाँदपुर गढ़ (चाँदपुर) चाँदपुर गढ़ का इतिहास ही अपने आप में लोकप्रिय व एतिहासिक रहा है। खश गढ़पति सूर्यवंशीय भानुप्रताप पाल की राजधानी उसके बाद पँवार वंश के संस्थापक कनकपाल की राजधानी रही। इसी वंशावली के अनुसार अजयपाल यहाँ 37 पँवार नरेशों ने शासन किया। इसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि को समझते हुए 2004 में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसका जीर्णोद्वार किया।

चौंड़ागढ़ (चाँदपुर) इस गढ़ के बारे में उत्तराखंड के लोगों में एक लोकोक्ति "तोपलों की तोप-ताप, चौंडलियों को राज, चौंडाल ठाकुरीगढ़" से ही इसकी विशेषता जानी जाती है।

तोपगढ़ (चाँदपुर) प्रतापी गढ़पति तुलसिंह जिसने तोप ढलवायी थी, इसे तोपल ठाकुरी गढ़ के नाम से भी जाना गया।

राणिगढ़ (चाँदपुर) खाती ठाकुरी गढ़।

कोलपुरगढ़ या कौलपुरगढ़ (चाँदपुर) कोब गाँव के कुछ दूरी पर कौनपुरगढ़ है, जहाँ प्राचीन अवशेष मिले, जिसके बारे में यह कहा गया कि यह राजा कनकपाल का गढ़ था।

बधाणगढ़ (बधाण) यह गढ़ पिंडर नदी के किनारे बधाणी ठाकुरों का गढ़ रहा है।

लहुबागढ़ (चाँदपुर) रामगंगा कि बायीं ओर स्थित है। नदी से लंबी सुरंग ही इसका अस्तित्व मिलता है। दिलेश्वर सिंह और प्रमोद सिंह यहाँ के प्रतापी गढ़पति थे।

जोन्यगढ़ (अजमीर पल्ला) सेनापति माधो सिंह भण्डारी ने पहली बार युद्ध में जोन्यगढ़ जीता।

ईड़ागढ़ (रवाई, बड़कोट) इस गढ़ के बारे में दो मत हैं, जिसमें पहला कर्णप्रयाग-नौटी मोटर मार्ग (आदिबद्री के समीप) पर मजियाड़ा गाँव के पास टीले जहाँ प्राचीन ईड़ा-बधाणी गाँव था वहीं ईड़ागढ़ था। दूसरा मत रवाईं का यह गढ़ किसी रुपचन्द नमक ठाकुर द्वारा बनाया गया था।

धन्यागढ़ (ईड़वल्स्यूं) धौन्याल ठाकुरी गढ़।

साबालीगढ़ (मल्ला सलाण, साबली) साबालिया बिष्टों का गढ़।

गुजड़गढ़ (मल्ला सालाण) सिली गाँव से गढ़ तक सोपानयुक्त सुरंग, लगभग छः घेरे में गहरी खाइयाँ तथा दुर्ग के ध्वंस अवशेष विधमान हैं।

बदलपुर गढ़ (तल्ला सालाण) चिणबौ से ऊपरी गढाधार पर्वत जहाँ गढ़ के अवशेष विराजमान है।

दशौलीगढ़ (दशौली) यह गढ़ राजा मानवर का गढ़ रहा है।

देवलगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का पूरा नाम वित्वाल के नाम से जगत गढ़ था। 12वीं शताब्दी में कांगड़ा नरेश देवल के नाम से इस गढ़ का नाम देवलगढ़ रखा गया। इस गढ़ को राजा अजयपाल ने अपने अधीनस्थ कर लिया था।

नायलगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ अंतिम ठाकुर भग्गु का  था। यह कठलीगढ़ के समीप है।

अजमेरी गढ़ (गंगसलण) यह गढ़ मुख्य रूप से चौहनों व पयालों का गढ़ रहा है। इस गढ़ को हुसैनख़ान टुकड़िया ने लूटा था।

कोलीगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ बछ्वाण ठाकुरी के अंतर्गत रहा है।

लोइगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का वर्तमान नाम ल्वैगढ़ है।

नवासुगढ़ (देवलगढ़) नावसु गाँव के अंतर्गत अकालगढ़ के रूप में भी जाना जाता है, परंतु इस बारे में अभी को पूर्ण साक्ष्य नहीं है।

भुवनागढ़ (देवलगढ़) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

लोधाण्यागढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

हियणीगढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

डौणीघआनगढ़ भुवनागढ़ के बाद इस गढ़ का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण उल्लेख स्पष्ट नहीं।

नागपुरगढ़ (नागपुर) यह गढ़ अंतिम ठाकुरी राजा भजन सिंह का था। इस गढ़ में नाग देवता का मंदिर स्थापित है।

कोटागढ़ (जौनपुर) इस गढ़ का वर्णन काँड़ागढ़ के नाम से उल्लेख मिलता है, जिसमें बिष्ट ठाकुरी गढ़ भी कहा गया है।

कंडारागढ़ (नागपुर) दुमागदेश नरेश मंगलसेन जो कि एक प्रतापी राजा था, लेकिन बाद में अजय पाल ने इस गढ़ पर आक्रमण कर जीत लिया। हालांकि इस गढ़ के बारे में भी अनेक मत हैं।

लंगूरगढ़ (गंगा सलाण) इस गढ़ में भैरव का मंदिर होने के कारण इस गढ़ को भैंरव गढ़ भी कहा जाता है। इस गढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज रहा।

पावगढ़ या मावगढ़ (गंगा सलाण) गढ़वाल के सात गढ़ों में से एक बताया जाता है। भानधा और भानदेव असवाल का शासन रहा।

इडवालगढ़ (बारहस्यूं) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

बागड़ीगढ़ (गंगा सलाण) बागड़ी या बगुड़ी (नेगी) जाति का गढ़।

गड़कोटगढ़ (गंगा सलाण) बगडवाल बिष्टों का गढ़।

खत्रीगढ़ (रवाई) गोरखा आक्रमण से पहले यह गढ़ स्थापित पावर नदी के दायीं तट पर स्थित है।

जौनपुरगढ़ (जौनपुर) यमुना के बाएँ किनारे पर स्थित यह गढ़ के पास अगलार-यमुना का संगम है।

फल्याणगढ़ (बारहस्युं) इस गढ़ के गढ़पति शमशेर सिंह के अधीन रहा, उन्होने इस गढ़ को फल्याण ब्राह्मणों को दान दे दिया था।

नैलचामिगढ़ (भील्लंग) स्वाति ग्राम क्षेत्र मेन संगेला बिष्टों का गढ़।

बारहगढ़ (भरदार) मन्दाकिनी की दायीं ओर लस्तूर तथा डिमार की उपरली घाटी में स्थित है।

कठूडगढ़ (चिल्ला) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरदरगढ़ (भरदार) अलकनंदा की दायीं ओर स्थित यह गढ़ तीन ओर से चट्टान, उत्तर से प्रवेश का दुर्गम मार्ग। कहा जाता है कि मृत्यु दण्ड वाले बंदियों को यहाँ छोड़ा जाता था।

चौंदकोटगढ़ (चौंदकोट) प्राचीरों, खाइयों सहित गढ़ों के अवशेष यहाँ विधमान हैं।

बनगढ़ (बनगढ़) अलकनन्दा की दायीं ओर, यह गढ़ सोनपाल के अधीन रहा। यहाँ पर राजराजेश्वरी का प्राचीन मंदिर है।

भिलागगढ़ (भील्लंग) 24वां पँवारवंश राजा सोनपाल का शासन रहा। खाल ग्राम में गंवानागाड़ व भिल्लंगना के संगम पर स्थित है।

हिंदाऊगढ़ (भील्लंग, हिंदाव) चांजी गाँव के समीप भवन के अवशेष से इस गढ़ का अस्तित्व सामने आया।

कुईलीगढ़ (नरेन्द्रनगर) भागीरथी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। गढ़ में घंटाकर्ण का मंदिर भी है।

सिलगढ़ (भरदार, सिलगढ़) मन्दाकिनी नदी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सबल सिंह सजवाण रहे।

चंवागढ़ (उदयपुर, मन्यार) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरपूरगढ़ (नरेंद्रनगर) गंगा की दायीं ओर, तैडीगढ़ के पश्चिम क्षोर पर स्थित है। इस गढ़ के गढ़पति अमरदेव तथा तैड़ीगढ़ के गढ़पति तनया तिलोमा थे।

मुंजणीगढ़ (नरेन्द्रनगर) इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सुलतान सिंह सजवाण थे।

उपुगढ़ (उदयपुर) कफ़्फ़ु चौहान इस गढ़ के गढ़पति थे, जिसे राजा अजयपाल ने अपने अधीन किया था।

मूंगरागढ़ (रवाई) इस गढ़ तीनों दिशाओं में यमुना बहती है तथा दक्षिण से इस गढ़ तक पहुँचने के लिए चट्टान काटकर चढ़ने के लिए सोपान बने हैं, इस गढ़ में अब रौंतेला ठाकुरों के घर हैं।

रेकागढ़ (प्रतापनगर) इस गढ़ का नाम उपली रमोली के एक गाँव के नाम पर है।

चोलागढ़ (प्रतापनगर) मोल्या गाँव के समीप इस गढ़ के अन्तिम गढ़पति घांगू रमोला थे।

पैनखंडागढ़ (पैनखंडा) यह गढ़ बुठेर जाति का गढ़ माना जाता है।

58 सिद्धपीठों में शामिल है हरियाली देवी का मंदिर

रुद्रप्रयाग स्थित जसोली में माँ हरियाली देवी का मंदिर स्थित है। यह मंदिर जसोली से 08 किमी0 की दूर पर स्थित है। स्थानीय तौर पर माँ हरियाली का मंदिर बहुत ही लोकप्रिय व कल्याणकारी है। मंदिर समुद्रतल से लगभग 800 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर में क्षेत्रपाल और हीट देव की प्रतिमां विराजमान है।

58 सिद्धपीठ मंदिर में से एक माँ हरियाली का मंदिर भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महामाया देवकी कि सातवीं संतान के रूप में पैदा हुई थी। मथुरा नरेश कंश ने महामाया को पटक कर मारना चाहा, जिसके फस्वरूप उनके शरीर के अंश पूरी पृथ्वी में जहां भी गिरे उन स्थलों को सिद्धपीठ के नाम से जाना गया। इसी तरह इस स्थान पर माँ हरियाली का हाथ गिरा, जिसके बाद यह स्थान हरियाली देवी के नाम से जाना गया।

माँ हरियाली मंदिर में जन्माष्टमी और दिवाली के पवित्र अवसर पर यहाँ बहुत बड़ा मेला आयोजित किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग शामिल होने आते हैं। उस दिन हरियाली देवी की प्रतिमां को यहाँ से 07 किमी0 दूर हरियाली काँटा ले जाया जाता है, जहाँ डोली के साथ-साथ भक्तों की टोली भी उनके साथ भ्रमण के लिए निकलती है।

माँ हरियाली की डोली जब परिक्रमा के लिए भ्रमण पर निकलती है, तो यात्रा में शामिल भक्तों को कड़े नियमों का पालन करना अतिआवश्यक होता है। इस यात्रा में महिलाओं का शामिल होना वर्जित माना जाता है, तो वहीं अन्य यात्री यात्रा से पूर्व माँस, लहसुन और प्याज का पूर्णरूप से त्याग करते हैं। सालभर मंदिर में भक्तों का जमावड़ा रहता है। कहा जाता है कि जसोली क्षेत्र में स्थित मंदिर शंकराचार्य के समय से निर्मित है। यात्रा शंकराचार्य के समय से ही आयोजित होती आ रही है। यात्रा में शामिल भक्त नंगे पाँव माँ की डोली के साथ भ्रमण हेतु निकलते हैं।

यात्रा के दौरान देवी का दर्शन कर उसी दिन भक्तों को वापस आना होता है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार जसोली में देवी का ससुराल जहाँ माँ का मंदिर स्थित है, जबकि हरियाली देवी काँठा में मायका है। पूरे वर्षभर में देवी अपने मायका धनतेरस के अवसर पर एक ही बार जाती है। यात्रा का पहला पड़ाव कोदिमा गाँव व दूसरा बाँसों गाँव है।

चाँदपुर मुल्क

चाँदपुरगढ़ी महल के अंश
चाँदपुर मुल्क चमोली जिले के अन्तर्गत आने वाले गाँव आदिबदरी, तोप, कांसुआ, आली-मज्याड़ी, नौना, हरगाँव, देवालकोट, माथर, मलेठी, बेनोली, ऐरोली, डुंग्री, शैलेश्वर, कफलोड़ी, तोली व अन्य प्रमुख गाँव हैं। कर्णप्रयाग से एक आदिबद्री-गैरसैण मोटरमार्ग जो गैरसैण व कुमाऊँ मण्डल को जोड़ता है तो आदिबद्री से वही मोटर मार्ग देवलकोट को भी जोड़ता है और वहीं से नौटी होते हुए कर्णप्रयाग वापस पहुंचा जा सकता है, तो कर्णप्रयाग से इडाबधाणी, जाख, नौटी, बेनोली, देवलकोट होते हुए गैरसेंण या फिर आदिबद्री होते हुए कर्णप्रयाग पहुँचा जा सकता है। इस मुल्क को खासतौर पर नन्दा देवी राजजात यात्रा के प्रारम्भ पड़ावों के लिए जाना जाता है।

कर्णप्रयाग से गैरसेंण की दूरी लगभग 37 किमी0 के करीब है। यदि मोटर मार्ग की स्थिति समझें तो पहले से थोड़ा सुधार है, परंतु पर्वतीय क्षेत्र होने की वजह से बरसात में इन मार्गों पर भूस्खलन की परिस्थिति बनी रहती है। आदिबद्री में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप माना जाता है इसके साथ ही यहाँ पर 888 ई0 के समय में राजा कनकपाल और उनके बाद अजयपाल का महल था जो अब केवल एक धरातलीय ढांचे के रूप में यादगार के तौर पर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इसी क्षेत्र में कांसुआ गाँव है जहां से नन्दा देवी राज जात यात्रा की भव्य शुरुआत होती है। तो दूसरी ओर प्रसिद्ध गाँव नौटी जहाँ नन्दा देवी का मंदिर भी स्थित है।

जन सुविधाओं के आधार पर इन क्षेत्रों में लोग अधिकतर खेती पर निर्भर होने के साथ ही अन्य कामों के जरिये अपनी आमदनी कमाते हैं, जबकि कई लोग रोजगार की तलाश में गाँव से शहर में निर्भर हो गए हैं। इसके साथ ही वर्तमान में नन्दासैण में आईटीआई कॉलेज व अन्य संस्थान भी खुल जाने के कारण लोगों को पहले से ज्यादा सुविधा मिल रही है।

आदिबद्री में सबसे प्रसिद्ध मेला नौठा कौथिग, शैलेश्वर मंदिर मेला जिसकी अवधि अब एक से ज्यादा दिन होने के साथ ही स्थानीय गाँव के लोगों द्वारा संगीत का भव्य आयोजन होता है। नन्दासैण में पर्यावरण संवर्द्धन मेला जो कि नवम्बर में करीब एक सप्ताह तक लगता है। यहीं से कफलोड़ी-पुनगाँव होते हुए बिरोंखाल (पौड़ी) के लिए भी एक मार्ग जाता है, हालांकि इस मार्ग पर बहुत कम वाहनों की आवाजही होती है। आए दिनों नन्दासैण में व्यापारिक बाजार के रूप में धीरे-धीरे विकसित होने लगा है, जो कि पहले कम ही रही।

उत्तराखंड की झाँसी की रानी तीलू रौंतेली

हम जब भी पहाड़ी नारी की वीरता व उसकी शक्ति का अवलोकन जब भी करते हैं तो उसमें पहाड़ की झाँसी की रानी के नाम से जाने जानी तीलू रौंतेली की वीरगाथा उत्तराखंड के इतिहास में अमर हो गयी। सत्रह शताब्दी में गुराड़ गाँव, परगना चौंदकोट गढ़वाल में जन्मी शौर्य व साहस की धनी इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में आज भी याद किया जाता है। तीलू रौंतेली 15 वर्ष की आयु से ही अपनी वीरता व साहस के लिए जाने जानी लगी, उन्होने अपनी अल्प आयु में ही सात युद्ध लड़कर विश्व की एकमात्र वीरांगना है।

तीलू रौंतेली थोकदार वीर पुरुष भूप सिंह गोर्ला की पुत्री थी। 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह ईडा गाँव के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ तय हो गयी थी। कुछ दिनों बाद उनके मंगेतर, पिता व दो भाइयों के युद्धभूमि  में प्राण न्यौछावर हो गए थे। उनके इसी प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को युद्ध भूमि में लड़ने के लिए विवश कर दिया। शास्त्रों से सम्पूर्ण सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और दो सहेलियों बेल्लू और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए कूच किया।

उनके इस साहस की चर्चा दूर-दूर के गाँव में होने लगी सबसे पहले उन्होने खैरागढ़ (कालागढ़ के समीप) को कत्यूरियों से मुक्त कर उमटागढ़ी पर आक्रमण किया फिर अपने सैन्य दल को लेकर वह सल्ट महादेव पहुँची, जहां उन्होने अपने शत्रु दल को खदेड़ा। इस विजयी के उपरांत तीलू भिलण भौन की ओर चल पड़ी। तीलू की दोनों सहेलियों ने इसी युद्ध में वीरगति प्राप्त की।

चौखुटिया तक अपने गढ़ राज्य का विस्तार करने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट पहुँची। इसी बीच कलिंगा खाल में उसका शत्रु से युद्ध हुआ। वीरोंखाल के युद्ध में तीलू के मामा रामू भंडारी तथा सराईंखेत के युद्ध में उसके पिता भूप सिंह गोर्ला युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में कत्युरी सैनिकों का सामना कर शत्रु को पराजित कर अपने पिता का बदला लिया। यहीं पर उसकी प्रिय घोड़ी बिंदुली भी शत्रु दल का निशाना बनी। तल्ला काँड़ा शिविर के समीप पूर्वी नयार नदी में स्नान करते रामू रजवार नामक एक कत्युरी सैनिक ने धोखे से तीलू रौंतेली पर तलवार से हमला कर उसकी जान ले ली।

आज भी हम उत्तराखंड की इस वीरांगना नारी की वीरता की कहानी उत्तराखंड के लोकगीतों में सुनते आए हैं। उनके ऊपर अनेकों गीतों से उनके जीवन को सँवारा गया है और उनकी वीरता व साहस का परिचय उनके नाम से ही जाना जाने लगा। उत्तराखंड में यह पहली एक ऐसी नारी थी, जिसने युद्धभूमि में कूदकर अपने शत्रुओं को पराजित कर इतिहास अपने नाम किया। उनके इस अदम्य साहस का परिचय उनकी इस ऐतिहासिक गाथा के साथ हमेशा अमर रही और रहेगी।

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक श्री नरेंद्र नेगी जी द्वारा भी उत्तराखंड की नारियों की वीरता व साहस को दर्शाता यह गीत आज भी लोग कई वीरगाथाओं को गीतों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं, ऐसा ही इस गीत के कुछ अंश हैं:-

पति व्रता नारी एख, बांध कीसाण छीन, बांध कीसाण छीन
तीलू रौतेली एख, रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन
रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन हो….कथगा रौंतेली स्वाणी चा, हा …कथगा रौंतेली स्वाणी चा 
भांडू का पवड़ा सुणा, बीरू का देखा गढ़
नरसिंह, नागराजा, पंडों का देखा रण
तुम ते लाकुड, दमो, ढोलकी.. धै लगे की, भटियाणी च,
कथगा रौंतेली स्वाणी चा
धरती हमरा गढ़वाल की, धरती हमरा गढ़वाल की, कथगा रौंतेली स्वाणी चा,

हरिद्वार

उत्तराखण्ड प्रकृतिक सौन्दर्य की अनुभूति व सुखद वातावरण के साथ ही आस्था का विशेष केंद्र भी है। चार धाम यात्रा के लिए सर्वप्रथम हरिद्वार से प्रारम्भ होती है। धार्मिक स्थलों में हरिद्वार का विशेष महत्व इसलिए भी है, क्योंकि यहाँ कुम्भ यात्रा व पावन गंगा का प्राचीनतम नगरों में से एक है। शिवालिक पहाड़ियों के तलहटी में गंगा से निकलकर आती हुई पावन गंगा के रूप में अवतरित होती हुई बंगाल की खाड़ी में मिलती है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के पूर्वज, कपिल मुनि के श्राप से ग्रसित होकर भस्म हो गए थे, जिसके बाद राजा भागीरथ ने कठोर तपस्या करके स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाये और अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इसी के चलते हरिद्वार का अन्य प्राचीन नाम कपिल स्थान भी है। हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक स्थान होने के साथ ही पर्यटक स्थलों के रूप में भी जाना जाता है।

दार्शनिक स्थल:
हरकी पौड़ी
यह हरिद्वार का सबसे प्रमुख घाट है। यहाँ प्रत्येक दिन लोग हजारों की संख्या में आते हैं। इस घाट पर पुजारीयों के साथ ही अन्य संस्कारों की पुजा की जाती है। मंदिर स्थल पूरी तरह से अनेक प्राचीन कलाकृतियों व मूर्तियों से सुसज्जित है। यात्रियों द्वारा यहाँ पर स्नान, पुजा, फूल चढ़ावा आदि किया जाता है, जबकि प्रतिदिन सुबह-शाम यहाँ पर गंगा जी की विशेष आरती की जाती है, जिसमें भक्तों के साथ ही हजारों दीप जगमगाते नजर आते हैं। यह भव्य स्वरूप जब गंगा की लहरों में तैरते दीपक लहराते नजर आते हैं तो सम्पूर्ण वातावरण भक्ति भाव में डूब जाते हैं, शंख ध्वनि के साथ ही हजारों भक्तों द्वारा आरती का गान किया जाता है।

मनसा देवी मंदिर
हरकी पौड़ी से लगभग 2 किमी0 की दूरी पर यह मंदिर बिलवा पर्वत पर स्थित है। मंदिर तक पहुँचने के लिए यात्री पैदल व रोपवे का स्तेमाल करते हैं। 

ब्यूटी पॉइंट
मनसा देवी मंदिर मार्ग से करीब दो किमी0 की दूरी पर यह स्थल स्थित है। यहाँ से हरिद्वार का पूरा मनमोहक दृश्य देखा जा सकता है। हरिद्वार की मैदानी भागों में फैली जलधाराओं, नदियों के ऊपर बने बैराजपुल व प्राकृतिक का सम्पूर्ण आनंद लिया जाता है।

चंडीदेवी मंदिर
गंगा के एक ओर जहां मनसा देवी का मंदिर है तो वहीं दूसरी ओर माँ चंडी देवी का मंदिर नील पर्वत पर स्थित है। कहा जाता है कि कश्मीर के राजा सुचात सिंह 1929 ई0 में बनाया था। चंडी मंदिर तक पहुँचने के लिए छोटी गाड़ियों व घोड़ों से पहुंचा जा सकता है। मंदिर में निलेश्वर, अंजनी देवी व अन्य देवी देवताओं के भक्तिभावपूर्ण दर्शन किए जा सकते हैं।

भीमगोड़ा सरोवर
यह सरोवर हरिद्वार में एतिहासिक गाथाओं का एक केंद्र रहा है। गाथा है कि जब पाँचों पांडव इसी राह से हिमालय की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो उन्होने यहाँ कुछ समय विश्राम किया। इसके साथ ही यहाँ भीम ने अपने घुटने की शक्ति से इस सरोवर का निर्माण किया था। इस सरोवर में स्नान करने से धार्मिक दृष्टि से पुण्यकारी माना जाता है।

सप्तऋषि
हरिद्वार में गंगा विशाल स्वरूप एक छोटी-छोटी धाराओं में विभाजित होकर अन्य भू-भागों में बहती है। इन्ही धाराओं में से एक सप्त सरोवर भी विशेष है।

दक्ष महादेव मंदिर व सतीकुंड (कनखल)
हरिद्वार से करीब 5 किमी0 की दूरी पर स्थित कनखल नामक स्थल पर यह पौराणिक स्थान है। हरिद्वार में इस स्थल का विशेष महत्व रहा है। कहा जाता है कि यह वहीं स्थल है जहां भगवान शिव रुष्ट होकर तांडव नृत्य किया था।

भारत माता मंदिर
भारत माता मंदिर सात मंज़िला भवन के रूप में है। इस मंदिर के निर्माण में शिल्प-मूर्तियों का बेजोड़ नमूना है। खास बात यह है कि इस मंदिर में देवी-देवताओं, ऋषि मुनियों के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित है।

खास बात
हरिद्वार हर बारहवें वर्ष पूर्ण कुम्भ मेला व हर छठे वर्ष अर्द्धकुम्भ मेला का आयोजन होता है।

हरिद्वार तक पहुँचने के लिए यात्रा मार्ग
वायुमार्ग: हरिद्वार से करीब 45 किमी0 की दूरी पर राष्ट्रीय हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग: हरिद्वार में देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है। यहाँ से दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, चंडीगढ़, वाराणसी, कलकत्ता, उज्जैन, जोधपुर व देहारादून इत्यादि।
सड़क मार्ग: हरिद्वार सड़क मार्ग देश के कई नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, जयपुर, जोधपुर, आगरा, शिमला, चंडीगढ़, लखनऊ, मुरादाबाद, मथुरा, अलीगढ़ सीधी बस सेवाएँ हैं। यहाँ से मसूरी, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि के लिए टैक्सी की भी सुविधाएं उपलब्ध है।

ऋषिकेश

चन्द्रभागा नदी व हरिद्वार से करीब 24 किमी0 की दूरी पर स्थित चार-धाम यात्रा का दूसरा मुख्य पड़ाव ऋषिकेश है। धार्मिक व आध्यात्मिक के लिए ऋषिकेश प्रसिद्ध है। ऋषिकेश का पौराणिक नाम कुब्जाम्रक माना जाता है। इस नाम के आधार पर एक पौराणिक कथा यह है कि केदारखण्ड के अनुसार मुनिरैभ्य ने आम के पेड़ का आश्रय लेकर कुब्जा रूप में भगवान के दर्शन किए थे, जिसके कारण इसका नाम कुब्जाम्रक पड़ा। यहाँ पर हजारों विदेशी पर्यटक आते हैं। इसके साथ ही यहाँ रफ्टिंग, पर्वतारोहण अभ्यास, जलक्रीडा व वन्य अभ्यारण आदि का लुप्त उठाया जाता है।

दार्शनिक स्थल
लक्ष्मण झूला
लक्ष्मण झूला का निर्माण सन 1939 में गंगा के 150 मी0 की ऊँचाई पर बनाया गया। इस झूला पुल को पार करके स्वर्गाश्रम पहुंचा जाता है।

रामझूला
रामझूला को पहले शिवानंद झूला कहा जाता था। यह झूला स्वर्गाश्रम, शिवानंद आश्रम व स्वर्गाश्रम के मध्य नदी पर स्थित है।

त्रिवेणी घाट
यहाँ भरत मंदिर के पास कुब्जाभ्रक नामक घाट है। तीन स्त्रोतों से पानी आकर मिलता है। इस घाट पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं के काफी संख्या में भीड़ मौजूद रहती है। त्रिवेणी घाट के दक्षिण में श्री रघुनाथ मंदिर है। इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले यहाँ पर स्थित कुण्ड में पितरों का तर्पण किया जाता है।

स्वर्गाश्रम
यहा पर अनेकों आश्रमों व मंदिरों की अत्यधिक संख्या है। यहाँ पर सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विस्थापित है।

नीलकंठ
ऋषिकेश से लगभग 12 किमी0 की दूरी पर स्थित है। नीलकंठ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ शिव ने समुद्र मंथन में निकले विष को यहीं ग्रहण किया था, जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया था। यह मंदिर 1700 मीटर की ऊँचाई पर वन क्षेत्र में स्थित है।

भरत मंदिर
ऋषिकेश में सबसे प्राचीन भरत मंदिर स्थित है। यहाँ राम-लक्ष्मण व शत्रुघन के मंदिर प्रसिद्ध व दर्शनीय है।

ऋषिकेश तक पहुँचने का मार्ग
वायुमार्ग यहाँ से 20 किमी0 दूर जौली ग्रांट हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग सभी नगरों से रेल सुविधा उपलब्ध नहीं है।
सड़क मार्ग यहाँ पहुँचने के लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, आगरा, नैनीताल, चार धाम के लिए विशेष गाडियाँ व टैक्सी की अन्य सुविधाएं उपलब्ध है।

यमुनोत्री

यमुनोत्री चारधाम यात्रा का प्रमुख स्थल माना जाता है। यमुना नदी के उद्गम क्षेत्र में यह तीर्थ स्थल निकटवर्ती बस स्टॉप हनुमानचट्टी से 14 किमी0 की पैदल यात्रा यात्रा करनी पड़ती है। इन पैदल मार्गों में प्रकृति के मनभावन स्वरूप को देखकर तीर्थ यात्री अपनी थकान भूलकर प्रकृति का आनंद लेते हैं। यमुना का मंदिर आपदा के कारण कई बार क्षतिग्रस्त हुआ है, जिसके बाद कई बार इसका निर्माण भी हुआ है। यह प्राचीन मंदिर टिहरी नरेश महाराजा प्रतापशाह ने संवत 1919 में बनवाया था। प्राकृतिक आपदा के बाद यह मंदिर कलकत्ता के सेठ जालान के सहयोग से बना। शीतकाल में अत्यधिक ठंड पड़ने से यहाँ बर्फ गिरानी शुरू हो जाती है, जिसके कारण यमुनोत्री धाम के कपाट बंद कर दिये जाते हैं और ग्रीष्मकाल में प्रतिवर्ष बशाख शुक्ल की तृतीया को खोले जाते हैं। सप्तऋषि कुण्ड से करीब 6 किमी0  की दूरी पर खरसाली गाँव है, जहां सोमेश्वर देवालय है। गंगोत्री मंदिर में खरसाली गाँव के पंडित पुजा-अर्जना का कार्य करते हैं। 

दर्शनीय स्थल
गर्म जल कुंड
मंदिर के पास पहाड़ी चट्टान के अंदर से गर्म पानी का फव्हरा निकलता रहता है। इस कुंड में यात्रीगण कपड़े की पोटी में चावल और आलू बांधकर रखते हैं व कुछ समय बाद यह पककर तैयार हो जाता है। इस कुंड का नाम सूर्य कुंड है।

सप्तऋषि कुंड
यह हिमानी झील यमुनोत्री से 10 किमी दूर है। यहाँ तक पहुँचने का मार्ग काफी दुर्गम है। यह स्थल यमुना नदी का वास्तविक उदगम स्थल है। इस झील में ग्लेशियर जमा होता रहता है और पानी का पूरा रंग नीला है। झील के आसपास ब्रह्मकमल के पुष्प खिले रहते है।

यमुनोत्री गाथा
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवी यमुना और यम (मृत्यु देवता) भगवान सूर्य एवं संज्ञा (जागरूकता की देवी) से दो संताने थी। ऐसी धारणा है की संज्ञा, सूर्य की भीषण गर्मी को सहन नहीं कर पा रही थी, तत्पश्चात यम ने छाया नाम का पुतला बनाकर उसको जगह दे दी। एक दिन यम ने छाया को अपने पैर से मरने की कोशिश की तो क्रोधित छाया ने यम को अभिशाप दिया कि तुम्हारा पैर एक दिन गिर जाएगा। यमुना जब पृथ्वी पर आई तो उसने अपने भाई को छाया के अभिशाप से मुक्त करने के लिए घोर तपस्या की। यम इससे बहुत प्रसन्न हुआ और यमुना को वरदान भी दे दिया। यमुना ने अपने भाई यम से वरदान के रूप में नदियों के सुरक्षित जल की मांग की, जिससे किसी की पानी पीने के अभाव के कारण मृत्यु न हो व मोक्ष की प्राप्ति हो इसलिए यमुनोत्री धाम उद्गम स्थिल के निकट स्थित पर्वत का नाम भगवान सूर्य, जिन्हें कलिंदा भी कहते हैं।

यमुनोत्री तक पहुँचने का मार्ग
वायुमार्ग समीपवर्ती हवाई अड्डा जौलीग्रांट जो कि ऋषिकेश से 18 किमी दूर है।
रेल मार्ग निकतम रेलवे स्टेशन 219 किमी0 दूर ऋषिकेश।
सड़क मार्ग यमुनोत्री से 14 किमी0 पहले हनुमानचट्टी तक ही बस सेवा उपलब्ध है। फिर वहाँ पैदल मार्ग से ही आगे का रास्ता तय करना होता है। ऋषिकेश, देहरादून, विकासनगर, मसूरी, उत्तरकाशी, गंगोत्री तथा बड़कोट से नियमित टैक्सी व बस सेवाएँ हनुमानचट्टी तक ही उपलब्ध है।

गंगोत्री

यह तीर्थ स्थल प्राकृतिक सौन्दर्य व हिमालय की पवित्रता के कारण मोहित करता है। गंगा नदी के उद्गम क्षेत्र में बसा यह प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। चार धाम यात्रा में गंगोत्री धाम का विशेष महत्व है। इस स्थल तक अब मोटर मार्ग बन जाने से यात्रा काफी सुगम हो गई है। तीर्थ यात्रियों के साथ ही वर्तमान समय में यहाँ पर्वतारोही व पर्यटक भी भरी संख्या में पहुँचते हैं। ऋषिकेश से करीब 255 किमी0 की दूरी पर इस मंदिर के कपाट अप्रैल माह में अक्षय तृतीया को खोला जाता है। माँ गंगा की डोली मुखवा गाँव के मार्कन्डेय मंदिर से शुरू होकर गंगोत्री धाम से लिए प्रस्थान होती है।

गंगा का मुख्य उदगम स्थल यहाँ से 18 किमी0 दूर गोमुख स्थित है। 18 किमी0 की यह यात्रा पैदल तय करनी पड़ती है, लेकिन कई यात्री इस स्थल तक भी जाते हैं। उत्तरकाशी जनपद में स्थित गंगोत्री धाम समुद्र तल से 9,980 (3,140 मी0) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत्री धाम में भागीरथी का मंदिर है, जिसमें गंगा, लक्ष्मी, पार्वती व अन्नपूर्णा की मूर्तियाँ स्थापित है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी नदी के नाम से जाना जाता है। 

दर्शनीय स्थल
भागीरथी जल प्रभात
गंगा नदी को यहाँ भागीरथी के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर जलधारा एक बड़े झरने के रूप में गिरती है।

भागीरथ शिला
मंदिर के पास भागीरथ शीला है। यहाँ पर स्नान व धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। यहा से आगे चलकर केदारताल से आने वाली केदारगंगा, भागीरथी नदी में मिल जाती है।

पटांगणा
गंगोत्री धाम से डेढ़ किमी0 आगे देवदार व अन्य के सघन वन है। गंगा नदी यहाँ संकरी घाटी में से होकर बहती है।

जलमग्न शिवलिंग
यह भगीरथी नदी में डूबा प्राकृतिक शिवलिंग शिला है। पानी का जल स्तर जब कम होता है तो तब यह शिवलिंग दिखाई देता है।

गंगोत्री गाथा
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भारतवर्ष के राजा महाराज सागर का राज था। महाराज सागर के पुत्र अत्यंत अहंकारी थे। अपने अहंकार के कारण एक दिन उन्होने एक महर्षि का अपमान कर दिया, जिससे क्रोधित महर्षि ने उन्हें भष्म कर दिया व उनकी आत्मा मोक्ष से वंचित रह गयी। महाराज की कई बार विनती करने के पश्चात महर्षि ने उन्हे कहा कि शाप तो वापस नहीं लिया जा सकता है, लेकिन उपाय किया जा सकता है। उन्होने महाराज को बताया कि यदि स्वर्ग से दिव्य नदी गंगा को धरती पर लाया जाये तो उनके पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इसके बाद उन्होने अपनी कड़ी तपस्या के बाद दिव्य गंगा माँ को धरती पर ले आए। गंगा के प्रचंड स्वरूप के कारण विनाश से धरती को बचाने के लिए भगवान शिव ने गंगा को पहले अपनी जटा में धरण कर फिर धरती की ओर प्रवाहित किया।

गंगोत्री तक पहुँचने का मार्ग
गंगोत्री तक पहुँचने के लिए मोटर मार्ग एक मात्र व उत्तम साधन है। गंगोत्री तक सीधी बस सेवा उपलब्ध है। ऋषिकेश, देहरादून, हरिद्वार, टिहरी, श्रीनगर, पौड़ी, उत्तरकाशी आदि स्थानों से त्वरित बस सेवा के साथ ही टैक्सी की सुविधा भी उपलब्ध है।

केदारनाथ

उत्तराखंड में चारधामों में केदारनाथ हिंदुओं का पवित्र धाम है। केदारनाथ भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह धाम समुद्र तल से 3581 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर के प्रसिद्ध द्वार पर देवीय बैल "नदी" की मूर्ति है। मंदिर को विशाल पत्थरों से पांडवशैली में इस विशाल मंदिर का निर्माण किया गया। पत्थरों पर खुदाई करके तस्वीरों को आकृति दी गयी है। केदारनाथ धाम के लिए गौरी कुंड से 15 किमी0 की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। मई माह में 6 माह के लिए भक्तों के लिए मंदिर के कपाट खोल दिये जाते हैं। कपाट बंद होने के बाद उखीमठ में पुजा-अर्चना की जाती है।

दर्शनीय स्थल
चोखाड़ी ताल
मंदिर से चार किमी0 की दूर पर प्राकृतिक यह बर्फ़ीला सरोवर दर्शनीय है। यहाँ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की अस्थि प्रवाहित की गई थी, इसलिए इसे गांधी ताल भी कहा जाता है।

शंकराचार्य समाधि
8वीं शताब्दी में आदिगुरु शंकराचार्य ने इस धाम में आकार मंदिर के दर्शन किए थे व 32 वर्ष की उम्र में यहीं समाधि ली थी। 

वासुकी ताल
केदारनाथ से 10 किमी0 की निकट चढ़ाई के बाद अनुपम सौन्दर्य से घिरा वासुकीताल हमेशा से पर्यटकों के लिए विशेष रहा है।

गौरीकुण्ड
केदारनाथ यात्रा के लिए यह स्थान आखिरी बस स्टॉप है। यह स्थान पानी के गर्म कुण्ड व पार्वती का मंदिर भी दर्शनीय है।

केदारनाथ गाथा
पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा। इस स्थान पर पहले भगवान शिव निवास करते थे, लेकिन भगवान विष्णु के लिए उन्होने इस इस स्थान को त्यागकर केदारनाथ में निवास करने लग गए। केदारनाथ मंदिर की ऊंचाई लगभग 66 फीट है। मंदिर के बाहर चबूतरे पर नंदी की एक विशाल मूर्ति है। एकांतप्रिय भगवान शंकर की तपस्थली केदारनाथ के विषय में पुराणों में विषद वर्णन उपलब्ध है। केदारनाथ हिमालय के सभी तीर्थ स्थलों में श्रेष्ठ है। गढ़वाल के श्रेष्ठ प्राचीन व विशाल एवं मंदिरों में प्रसिद्ध है। केदारनाथ में भगवान शिव की पीठ (पृष्ठ भाग) का विग्रह है।

केदारनाथ तक पहुँचने का मार्ग
केदारनाथ पहुँचने के लिए यहाँ से पहले 14 किमी0 पहले गौरीकुण्ड तक ही बस व टैक्सी सुविधाएं उपलब्ध है। गौरीकुण्ड से आगे 14 किमी0 पैदल यात्रा करनी पड़ती है, इसके साथ ही इस पैदल मार्ग पर खच्चर तथा डंडीकंडी की सेवाएँ भी उपलब्ध है।

बद्रीनाथ

नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित बद्रीनाथ धाम स्थित है। स्कन्दपुराण के अनुसार सतयुग के आरंभ में स्वयं भगवान लोक कल्याण के लिए श्री विष्णु बद्रीनाथ के रूप में मूर्तिमान विराज हुए थे। 3133 मी0 की ऊंचाई पर स्थित स्थित बद्रीनाथ का मंदिर मानव की धार्मिक चेतना और भारत की आध्यात्मिक शांति का प्रतीक है। 9वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मूर्ति को नारदकुण्ड से निकालकर मंदिर में प्रतिष्ठापित किया गया। नर-नारायण पर्वतों के मध्य प्रवाहित विष्णुगंगा भगवान बदरी विशाल के चरणों को स्पर्श करती हुई विष्णुप्रयाग में संगम करने से पूर्व अलकनंदा कहलाती है। मंदिर के कपाट माह अप्रैल-मई में खुलते है तथा नवम्बर में बंद हो जाते हैं। बद्रीनाथ की पूजा रावल जो दक्षिणी देश अथवा चोली या मुकाणी जाति का होता है। रावल को विवाह का अधिकार न होने के साथ ही वेदों का ज्ञान रखने वाला होना चाहिए।

दर्शनीय स्थल
हेमकुंड साहिब
बदरीनाथ यात्रा मार्ग पर यह सिख तीर्थ स्थल गोविंदघाट से 20 किमी0 पैदल मार्ग 4329 की ऊंचाई पर स्थित है। सिख धर्म ग्रंथ के अनुसार इसी स्थान पर सिख गुरु गोविंद जी ने महाकाल की तपस्या की थी।

माणा गाँव
बदरीधाम से 3 किमी0 पहले भारत-तिब्बत सीमा पर बसा भारत का यह आखिरी गाँव है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर एक व्यास गुफा है, जिसमें चारों वेदों के मंत्रों को एक साथ रखकर चार भागों में बाँटा गया था इसके साथ ही यहाँ पुराण भी लिखे गए थे।

भीमपुल
माणा गाँव से कुछ आगे चलकर सरस्वती नदी के ऊपर प्राकृतिक स्वरूप में विशाल चट्टान का यह पुल दर्शनीय है।

वसुधारा
भीम पुल से गुजरते हुए 5 किमी0 पैदल मार्ग का सफर पूरा करते ही एक ऊंचा झरना आकर्षित करता है।

पांडुकेसर
बदरीनाथ धाम से 20 किमी0 की दूरी पर स्थित है। यह स्थल पांडवों की स्मृति से जुड़ा पौराणिक स्थल है।

बदरीनाथ धाम तक पहुँचने के लिए यात्रा मार्ग
बस व अन्य यातायात साधनों से यहाँ तक पहुंचा जा सकता है। यहाँ से 297 किमी0 ऋषिकेश व 327 किमी0 की दूर पर कोटद्वार में रलवे स्टेशन है। देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, कोटद्वार व दिल्ली व इसके आसपास के स्थलों से नियमित साधारण व डीलक्स बस की सेवाएँ उपलब्ध है।

पारंपरिक लोकगीत-संगीत का भण्डार है उत्तराखंड

उत्तराखंड लोक नृत्य व संगीत खासतौर पर एक अलग-अलग परंपरागत ढंग से विख्यात है। परंपरागत संगीत के आधार पर उसके नृत्य की रूपरेखा भी उसके ही अनुसार प्रस्तुत की जाती है जैसे धार्मिक लोकगीत में जागर, देवी-देवताओं का गीत, संस्कार लोकगीत में बच्चे के जन्म पर, मांगल, विवाह, जनेऊ, ऋतु लोक गीत में वसंतगीत, झूमैलो, होली ऐसे ही और कई सारे प्रसिद्ध गीत प्रमुख है।

धार्मिक गीत
जागर, देवी-देवता गीत व नृत्य, मनौती के लिए अनेक प्रकार के गीत व संगीत इत्यादि स्थानीय तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।

संस्कार गीत
बच्चे के जन्म पर, मांगल, अन्य संकार गीत।

ऋतुगीत
वसंत, झूमैलो, होली, खुदेड़, बारहमासी।

नृत्यगीत
चौंफुला, छोपती, चाँचर, माघगीत, तांदी।

प्रणयगीत
बाजूबंद, लामण, छोपती, बारहमासी।

उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा सबसे प्रसिद्ध लोकनृत्य व संगीत छौंफुला, पांडव नृत्य, झूमैलो, छोलिया, बाजूबंद, वसंत गीत व मंगलगीत का विशेष महत्व है। पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार पहले यह गीत संगीत काफी प्रचलित होने के साथ ही लोगों में एक अलग ही उत्साह दिखाई देता है, लेकिन आधुनिक युग और चाक-चौबन्द के आगे हमारे पारंपरिक गीत-संगीत व लोक नृत्य की परिभाषा बदलते देर न लगी, जिसके कारण हमारे पारंपरिक गीतों का चलन कम हो रहा है क्योंकि आज आधुनिक संगीत तकनीकी के कारण विलुप्ति की कगार पर है।

ये तो वो गीत-संगीत के कुछ नाम हैं जो विशेष तौर पर उत्तराखंड को अलग ही पहचान दिलाती रही, लेकिन इसके अलावा बहुत सारे अंश जो अब शायद ही किसी स्थानीय कार्यक्रमों में भी झलक जाता हो। पलायन की स्थिति के अनुसार उत्तराखंड की सामाजिक लोक कलाओं में भी परिवर्तन की स्थिति यथावत देखी जा सकती है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि उत्तराखंड से पलायन हुए परिवारों में इन गीत संगीत की रुचि कम ही दिखाई देती है, लेकिन जहां भी उत्तराखंड के नृत्य व गीत-संगीत की धुन दिखाई दे वहाँ नृत्य करने वालों के कदम अपने आप ठहकने लगते हैं।

धार्मिक अस्था का पवित्र केंद्र है मानसरोवर

मानसरोवर उत्तर में कैलाश पर्वत, दक्षिण में गुलेला मांधाता पर्वत, पश्चिम में राक्षस ताल तथा पूर्व में सुंदर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। विश्व की समस्त झीलों में पवित्र, मनमोहक व प्रेरणास्त्रोत मानव कल्याण को प्रेरित करने वाली न केवल प्राचीनतम झील के रूप में आवृत्त है बल्कि हिन्दू धर्म के आस्था का भी केंद्र है। कैलाश पर्वत का निर्माण 300 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के प्रारम्भिक चरण में हुआ, जो भौगौलीक दृष्टि से तिब्बत में स्थित है। स्थानीय भाषा में इसे 'काँग रंपूछ' अथार्त बहुमूल्य रत्न कहा जाता है।

मानसरोवर के बारे में कहा जाता है कि इस झील का निर्माण स्वयं ब्रह्मा जी ने किया था। आदिकाल से ही कैलाश मानसरोवर को पवित्र तीर्थ स्थल माना गया है। कहा जाता है कि इस झील में स्नान करने से सभी पाप मिट जाते हैं। पौराणिक गाथाओं के अनुसार शिव और ब्रह्मा, देवगण, सरिच आदि ऋषि व रावण आदि ने यहाँ तप किया था। युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना, रत्न और याक के पुंछ के बने काले और सफेद चामर भेंट किए थे। इसके साथ ही यहाँ अनेक ऋषिमुनियों के तपस्या करने का उल्लेख प्राप्त होता है। कुछ धार्मिक विद्वानों के अनुसार शंकरचार्य ने अपने शरीर का त्याग यहीं किया था।

हिंदुओं के अनुसार कैलाश शिव का सिंहासन और बौद्धों के अनुसार एक विशाल प्राकृतिक मण्डल लेकिन फर्क इतना है कि दोनों ही धर्मों के लोग इसे तांत्रिक शक्तियों का भंडार मानते हैं। इस पर्वत का पिरामिड आकार पूरे वर्षभर बर्फ की सफेद चादर से ढका होता है। जैन धर्म में इस स्थान का विशेष महत्व है। वे कैलाश को अष्टापद कहते हैं। ग्यारहवीं सदी में सिद्ध मिलैरेपा इस प्रदेश में अनेक वर्ष तक रहे। विक्रम-शीला के प्रमुख आचार्य दीपशंकर श्रीज्ञान तिब्बत नरेश के आमंत्रण पर बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए यहाँ आए थे।

कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए वैसे तो अनेक मार्ग हैं। मानसखंड पुराण में काली नदी के तट से होकर कैलाश मानसरोवर यात्रा तीर्थ को जाने का मार्ग बताया गया है। इस यात्रा मार्ग के कारण ही कुमाऊँ मानसखंड भी कहलाता है। अल्मोड़ा से पिथौरागढ़ जिले के असकोट, धारचूला, गूंजी लिपुलेख से तकलाकोट होकर जाने वाला मार्ग पहले सुगम व 1170 किमी0 है। कैलाश पर्वत का उच्चतम शिखर बिन्दु 5810 मीटर ऊंचा व मानसरोवर 4530 मीटर ऊंचा है जो की विश्व की सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित झील है। इस झील की परिधि 90 किमी0, गहराई 90 मीटर तथा क्षेत्रफल 320 वर्ग किलोमीटर है। यह झील एक लगभग 4515 मीटर लंबे प्राकृतिक जल-संयोजक द्वारा राक्षसताल से जुड़ी है। सतलुज नदी राक्षसताल से ही निकलती है।

इस यात्रा के लिए हल्द्वानी, काठगोदाम, भुवाली तथा अल्मोड़ा होते हुए रेलगाड़ी तथा सड़क मार्ग से वागेश्वर पहुंचा जाता है। आगे वागेश्वर से काँड़ा, विजयपुर, कोट्मन्या से चाय बागानों (पूर्वी) तथा गौरी नदियों को पार करते हुए डीडीहाट, ओगला तथा जौलजीवी होकर धरचूला पहुँचते हैं। यही रात्री विश्राम व चिकित्सा परीक्षण करके अगले दिन धरचूला से 19 किमी0 आगे तवाघाट (914 मी0) है, जहाँ पर तीव्रवेग से गर्जन करती हुई पूर्वी धौली तथा काली नदी का संगम होता है।

तवाघाट से 17 किमी0 आगे माँग्टी तथा चार किमी0 की दूरी पर गाला (2440 मी0) है। यहाँ कुमाऊँ मण्डल विकास निगम द्वारा निर्मित विश्राम-कुटियों के शिविर सुविधाएं उपलब्ध है। गाला से 16 किमी0 चलकर बूंदी पहुँचते हैं जहाँ यात्री विश्राम करते हैं। बूंदी से 17 किमी0 आगे 3500 मीटर की ऊंचाई पर गूंजी है। बूंदी से 3 किमी0 आगे चलकर छियालेख (3350 मी0) पहुँचते हैं। यहाँ से दक्षिण की ओर काली गंगा नदी और पूर्व में अपि नाम्भा की चोटियाँ तथा गरब्यांग और छांगरु गाँव दिखाई देते हैं। उत्तर में नेपाल से आने वाली थेकर नदी का कालीनदी से संगम होता है। छियालेख से 14 किमी0 आगे गूंजी पहुँचकर छोटा कैलाश यात्रा मार्ग आरंभ हो जाता है।

गूंजी से काली नदी के तट के साथ 10 किमी0 चलकर कालापानी पहुंचा जाता है। कालापानी से नवींढाँग मात्र 9 किमी0 है। नवीढ़ांग से 8 किमी0 चलकर लिपुलेख दर्रा (5334 मी0) है। यहाँ से यात्री तिब्बत में प्रवेश करते हैं।  करनाली नदी के किनारे तकलाकोट या पुरांग व्यापारिक केंद्र है। आगे 3-4 किमी0 की दूरी पर डोगरा जनरल जोरावर सिंह के स्मारक के भग्नावेष है यही कुछ औपचारिकता पूरी कर मुद्राओं को बदला जाता है। यहाँ से यात्री दल दो समूहों में विभक्त होकर एक कैलाश परिक्रमा व दूसरा दल मानस परिक्रमा के लिए प्रस्थान करता है। यात्री बस पुरांग से बायीं ओर गुलैला दर्रा, राक्षसताल तथा दायीं ओर गुलैला पर्वत होती हुई तारचैन पहुँचती है। यहीं से मानसरोवर झील दिखाई देती है। तारचैन से कैलाश परिक्रमा करने वाला दल पदल ही जाता है जबकि मानस दल बस द्वारा होकर पहुंचा जाता है।

कैलाश पर्वत की ओर 20 किमी0 लाहाचू नदी के साथ-साथ चलते हुए सूर्यास्त से पूर्व दिरापुक  गोम्पा (4909 मी0) पहुँचकर कैलाश के उतरी भाग के सूर्यास्त का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है। मानस दल परिक्रमा की ओर झील के दक्षिण-पश्चिमी भाग के साथ-साथ जैदी पर परिक्रमा पूर्णा करने से पहले गोसुअल का भी दर्शन करता है।

उत्तराखंड में प्राकृतिक साहसिक यात्रा की अनोखी यात्रा

उत्तराखण्ड प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ ही यहाँ साहसिक पर्यटन खेलों के भी आयोजन किया जाता रहा है। उत्तराखण्ड तीर्थ स्थलों के कारण विश्व में अपनी एक प्रख्याति के रूप में जाना जाता है, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के लिए भी प्रसिद्ध है। साहसिक खेलों में राफ्टिंग, स्कीइंग, ट्रेकिंग-पैदल यात्रा, रॉक क्लाइंबिंग, पैराग्लाइडिंग व हेंग ग्लाइडिंग, रज्जुमार्ग तथा वन विचरण इत्यादि हैं।

राफ्टिंग
रिवर राफ्टिंग के लिए उत्तराखण्ड में ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर गंगा नदी के तट पर कौड़ियाला, शिवपुरी है। इन स्थानों पर राफ्टिंग के लिए अनेक संस्थानों के तहत राफ्टिंग प्रशिक्षण, सुरक्षा के लिए अनेक सुविधाओं का शिविर तथा रहने के लिए अनेक होटल भी मौजूद हैं।  यह स्थान प्राचीन समय से ही जलक्रीड़ाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। देहरादून से लगभग 50 किमी0 की दूर पर स्थित राफ्टिंग के लिए अनेक शिविरों द्वारा इस आयोजन को बरसात से पहले शुरू किया जाता है। पर्यटन दृष्टि से यहाँ अनेकों यात्रियों की भीड़ हर समय देखि जा सकती है। 


स्कीइंग
साहसिक पर्यटन की दृष्टि से स्कीइंग बहुत ही लोकप्रिय रहा है। इस खेल का आयोजन चमोली जिले के अंतर्गत जोशीमठ के निकट स्थित औली को स्कीइंग तथा शीतकालीन खेलों के लिए प्रमुख रूप से विकसित किया गया है। यहाँ वर्ष के अंत तक लगभग पहाड़ों पर बर्फ देखी जा सकती है। औली में 600 मीटर वाली केबलकार एशिया में सबसे लंबी है। औली देहरादून से लगभग 290 किमी0 की दूरी पर स्थित है। 

ट्रेकिंग व पैदल यात्रा
पर्वतीय क्षेत्रों में भ्रमण करने व प्रकृति का आनंद लेने हेतु उत्तराखण्ड भी अपने आप में एक अलग ही पहचान रखने वाला राज्य है। इस यात्रा के लिए सबसे पहले साहस, अनुभव, प्रशिक्षण, धैर्य, क्षमता की अतिआवश्यकता होती है। उत्तराखण्ड में गढ़वाल-कुमाऊँ मण्डल विकास निगम अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में राष्ट्रीय पर्वतारोहण संस्थान (एनआईएम) के सहयोग से अनुभवी मार्गदर्शक व अन्य सुविधाएं प्रदान करते हैं। प्रदेश में 100 से अधिक ऐसे पर्वत शिखर हैं जो 6000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित हैं। गढ़वाल मण्डल विकास निगम ऋषिकेश में मुनिकिरेती में माउंटेनियरिंग तथा ट्रेकिंग डिवीजन में सारे उपकरण उपलब्ध हैं। प्रदेश के कुछ ट्रेकिंग मार्ग इस प्रकार हैं:

गढ़वाल मण्डल
पंचकेदार, 14 दिन, ग्रीष्मऋतु, केदारनाथ-बासुकिताल 6 दिन ग्रीष्मऋतु, यमुनोत्री-डोडीताल 8 दिन ग्रीष्मऋतु, गंगोत्री-नंदवन-तपोवन 8 दिन ग्रीष्मऋतु, कालिंदीखाल 12 दिन जुलाई-अगस्त (उच्च अक्षांश ट्रेक अनुभव व अनुमति आवश्यक), फूलों की घाटी 8 दिन जुलाई-अगस्त, खतलिंग-सहस्त्रताल 14 दिन अगस्त-सितंबर, हरकी दून 9 दिन ग्रीष्मऋतु, रूपकुंड (नन्दा राजजात मार्ग) 10 दिन ग्रीष्मऋतु, उत्तरकाशी-लाटा-बुढ़ाकेदार-पनवाली-केदारनाथ 12 दिन ग्रीष्मऋतु, कलसी-लाखामंडल 7 दिन वर्षभर, कुंवारीपास 9 दिन ग्रीष्मऋतु, ऋषिकेश-पौड़ी-बिनसर 7 दिन वर्षभर, मसूरी नागटिब्बा 6 दिन वर्षभर, ऋषिकेश-औली-कुंवारीपास-तपोवन 7 दिन ग्रीष्मऋतु, गंगोत्री-केदारनाथ 5 दिन ग्रीष्मऋतु, थराली-घाट 2 दिन ग्रीष्मऋतु, माणा-सतीपंथ 4 दिन ग्रीष्मऋतु, उखीमथ-दवरियाताल 2 दिन ग्रीष्मऋतु।

कुमाऊँ मण्डल
पिथौरागढ़-पार्वतीलेक-चोपता-कैलाश-सिनलापास, पिथौरागढ़-सुंदरढुंगा ग्लेशियर, बागेश्वर -सुंदरढुंगा ग्लेशियर, बागेश्वर-पिंडारी ग्लेशियर, बागेश्वर-कफ़नी ग्लेशियर, अल्मोड़ा-चितई-जागनाथ।


रॉक क्लाइंबिंग
पहाड़ी व दुर्गम स्थानों के साथ चढ़ने के लिए प्रसिद्ध है। इसके लिए चमोली जनपद में थराली व तपोवन तथा टिहरी जनपद में कौड़ियाला प्रमुख स्थल है। इस अभियान के लिए भी प्रशिक्षण, साहस, धैर्य व अनुभव की भी आवश्यकता होती है। उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान द्वारा इसके लिए सभी सुविधाएं व प्रशिक्षण देता है।



पैराग्लाइडिंग व हेंग ग्लाइडिंग
इस रोमांचकारी खेल में हवा में उड़ते हुए विचरण करने से है। इसके लिए होने वाले एयरो फाइल डैन, हैंग्लाइडिंग के डेनो से दस गुना हल्के होते हैं। इसी कारण पैराग्लाइडिंग अब लोकप्रिय होने लगा है। उत्तराखण्ड में भी पर्यटन को बढ़ावा देने के मकसद से इस साहसिक खेल का आयोजन किया जाने लगा है।




रज्जुमार्ग
उत्तराखण्ड पर्यटन दृष्टि से काफी हद तक अपने आप में एक प्रतीक है। इसी के मद्यनजर पर्यटन परिषद ने पर्वत श्रेणियों के साथ-साथ गहरी घाटियों से कई सौ मीटर ऊपर वायुमार्ग में विचरण करने हेतु एशिया के सबसे लंबे व सिंधुतल से 2500-3250 मीटर की ऊंचाई पर जोशीमठ-औली रज्जुमार्ग का निर्माण पर्यटन को विकसित करने के लिए किया गया। 3.9 किमी0 लंबा तथा 4.15 किमी0 के ट्रेक-मार्ग वाला यह रज्जु मार्ग 10 स्टील टावर्स, रिमोट कंट्रोल युक्त आधी आधुनिक से परिपूर्ण है।

बेटी की भावनाओं से जुड़ा "मैती आंदोलन"

मैती आंदोलन के जननायक श्री कल्याण सिंह रावत
उत्तराखंड में पर्यावरण के प्रति अपनी संवेदना और भावनाओं से परिपूर्ण चिपको आन्दोलन के बाद दूसरा आन्दोलन "मैती आंदोलन" के नाम से जाना गया, मैती अथार्त लड़की का मायका। मैती आंदोलन चिपको आन्दोलन से प्रेरित होकर बेटी की शादी के समय उसके यादगार पलों को सँजोये रखने की रीत आज ज़ोरों पर शुरू हो चुकी है।

उत्तराखण्ड में बोली जाने वाली सबसे लोकप्रिय बोलियाँ

"गढ़वाल व कुमाऊँ बोलियों का वर्णन ग्रीयर्सन ने भारत का भाषा सर्वेक्षण नमक पुस्तक में दोनों गढ़वाल मण्डल व कुमाऊँ मण्डल की इक्कीस उप बोलियों का उल्लेख किया है।"


कुमाऊँ

  1. अस्कोट: पिथौरागढ़ जनपद में सीरा क्षेत्र के उत्तर पूर्व में अस्कोट के अंतर्गत बोली जाने वाली बोलियों को अस्कोटी कहा जाता है। इस बोली में मिश्रित बोली सीराली, नेपाली और जोहारी का अत्यधिक प्रभाव है।
  2. सीराली: सीराली क्षेत्र में सीरा बोली सीराली कहलाती है। अस्कोट के पश्चिम और गंगोली के पूर्व क्षेत्र सीरा कहलाती है।
  3. सौर्याली: पिथौरागढ़ जनपद के सोर परगने की बोली सोर्याली है। 
  4. कुमय्याँ: काली कुमाऊँ क्षेत्र के अंतर्गत बोली जाने वाली बोली को उत्तर में पनार और सरयू, पूर्व में काली, पश्चिम में देविधुरा तथा दक्षिण में टनकपुर तक इस बोली का प्रभाव है।
  5. गंगोली: गंगोलीहाट के अंतर्गत बोली जाने वाली इस बोली को पश्चिम में दानपुर, दक्षिण में सरयू, उत्तर में रामगंगा व पूर्व में सोर तक इस बोली का प्रभाव है।
  6. दनपुरिया: अल्मोड़ा जनपद के दानपुर परगने की यह बोली दनपुरिया कहलाती है।
  7. चौगर्ख्रिया: काली कुमाऊँ के पश्चिम के उत्तर पश्चिम से लेकर पश्चिम के बारमंडल परगने तक इस बोली को बोला जाता है।
  8. खासपार्जिया: अल्मोड़ा के बारमंडल परगने के अंतर्गत बोली जाती है।
  9. पछाई: अल्मोड़ा जनपद के पालि क्षेत्र के अंतर्गत यह बोली फल्द्कोट, रानीखेत, द्वारहाट, मासी तथा चौखुटिया तक प्रभावित है।
  10. रौ-चौभेंसी: उत्तर पूर्वी नैनीताल जनपद के रौ और चौभेंसी क्षेत्र में इस बोली को बोला जाता है।

गढ़वाली
  1. बधानी: पिंडार और अलकनंदा नदी के मध्य क्षेत्रांतर्गत बोली जाती है।
  2. माँझ कुमइयाँ: इस बोली में अनेक शब्दों के मिश्रित कुमाऊँ भी शब्द भी है।
  3. श्रीनगरी: इस प्रकार की बोली गढ़वाली के प्राचीन राजधानी श्रीनगर के अंतर्गत पौड़ी देवल के निकतम क्षेत्रों में बोली जाती है।
  4. सलाणी: सलान क्षेत्र के अंतर्गत यह बोली सलाणी कहलाती है।
  5. नागपुरिया: चमोली जनपद के नागपुर पट्टी के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में इस बोली को नागपुरिया कहा जाता है।
  6. गंगपरिया: टिहरी क्षेत्र के अंतर्गत इस बोली को बोला जाता है।
  7. लोहब्या: राठ से सटे क्षेत्र लोहाब पट्टी खंसर व गैरसैण के क्षेत्रों में इस बोली का प्रभाव है।
  8. राठी: कुमाऊँ सीमा से सटे दूधातोली, विनसर और थालीसैण आदि क्षेत्रों को राठ कहते हैं। इन क्षेत्रों के अंतर्गत यह बोली राठी कहलाती है।
  9. दसौल्य: नागपुर पट्टी के अंतर्गत दसोली क्षेत्र में यह बोली दसौल्य कहलाती है।

उत्तराखण्ड के स्थानीय व पौराणिक वाद्य संगीत-यंत्र

लोकगीतों और लोकनृत्य की विधाएँ आदिकाल से ही चली आर ही हैं। लोक कलाओं में लोकगीत और संगीत, लोकवाद्यों के बिना अधूरे हैं। उत्तराखंड में लगभग 36 प्रकार के प्रमुख लोक वाद्य प्रचलित है। जिनकी कुछ श्रेणियाँ इस प्रकार है:-
  1. घन वाद्य: वीणाई, कांसे की थाली, मजीरा, घाना/घानी, घुँघरू, केसरी, झांझ, घण्ट, करताल, ख़ंजरी, चिमटा।
  2. अवनद्ध वाध/चर्म वाध: हुड़का, डौंर, हुड़क, ढोलकी, ढ़ोल, दमाऊँ, नगाड़ा, घतिया नगाड़ा, डफ़ली, डमर।
  3. सुषिर वाध: मुरुली, जौया मुरुली, भौकर/भंकोरा, तुरही, रणसिंहा, नागफणी, शंख:-, उधर्वमुखी नाद, मशकबीन।
  4. तांत/तार वाध: सारंगी, एकतारा, दोतारा, गोपीचन्द्र का एकतारा/गोपी यंत्र।
  5. हारमोनिय

ढ़ौल-दमाऊँ

ढ़ौल सर्वप्रथम नागसंघ ने युद्ध में वीरों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रयोग किया था। ढ़ौल-दमाऊँ साथ-साथ  बजाए जाते हैं। यह उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय वाद्य-यंत्रों में से एक है। इसको मांगलिक कार्यों, समूहिक नृत्यों, धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा यात्राओं, लोक उत्सवों और विवाह समारोह में बजाया जाता है। ढ़ोल गले में जनेऊ की भांति दाहिने हाथ से छोटी छड़ी के सहारे बजाया जाता है, जबकि दमाऊँ गले में डालकर दोनों हाथों से नगाड़े की भांति बजाया जाता है।

डौंर-थाली
उत्तराखंड में यह सबसे ज्यादा गढ़वाल व कुमाऊँ क्षेत्रों में देखने को मिलता है। डौंर को शिव यंत्र के नाम से भी जाना जाता है। ढ़ौल की तरह डौंर को छड़ी व हाथ से बजाया जाता है। घुटनों के बीच डमरू को रखकर दाहिने हाथ से छड़ी व बाएँ हाथ की उँगलियों से शब्दोत्पति कर बजाया जाता है। थाली के रूप में अक्सर कांसे से बनी थाली का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग औंछरियों (अप्सराओं) के नृत्य, देवि-देवताओं का मनुष्य में प्रवेश कराने और अलौकिक शक्ति सम्पन्न कराने में अहम भूमिका निभाती है, इस यंत्र के बिना यह कार्य संभव नहीं हो पाता है। इसका प्रचालन आज भी मौजूद हैं। 

ढौलकी (ढोलक)
बद्दी जाती के समुदाय द्वारा विशेष रूप से इसका प्रयोग किया जाता है। त्यौहारों के अवसर पर इसका प्रयोग अधिकतर किया जाता है। साधारणतया साल की लकड़ी से तथा इसकी पुड़ियाँ बकरी या काखड़ की खाल से निर्मित की जाती है। लोहे अथवा पीरल के कुंडलों से कसकर ढोलकी को आवश्यकतानुसार सुर दिया जाता है। 

हुड़की 
हुड़की अत्यंत हल्की व बजाने में सरल वाध है। कुमाऊँ में कत्युरी शासन में छटी शताब्दी के पूर्वार्ध में हुडक्या नायक द्वारा हुड़का बजाने का उल्लेख मिलता है। हुड़की का प्रयोग जागर और अन्य लोकगीतों के अवसर पर ही बजाया जाता है। हुड़की को केवल दायें हाथ से ही बजाया जाता है। इसका प्रयोग उत्तराखंड के स्थानीय देवी-देवताओं व अन्य लोकगीतों के दौरान किया जाता है।

तुर्री और रणसिंघा
यह युद्ध के वाद्य यंत्र हैं, आकार में लंबे पीतल या तांबे के बने होते हैं। युद्ध के अवसरों पर इन वाद्य यंत्रों को बजाने पर सूचना या सावधान रहने का संदेश दिया जाता था। यह मुख की ओर संकरी नाल द्वारा फूँक मारकर इनसे तीव्र कर्कश ध्वनि निकलती है। इसका प्रयोग देवि-देवताओं की पुजा के दौरान किया जात है।

मोछंग
यह लोहे की पतली पट्टियों से निर्मित छोटा सा वाद्य यंत्र है, जिसको होंठों पर टीकाकार एक उंगली से बजाया जाता है। उंगली के संचालन और होंठों के मध्य इसको सुर दिया जाता है।

झाँझ (झझरी)
कांसे की दो प्लेटों से निर्मित यह वाद्य यंत्र दमाऊँ के साथ बजाया जाता है।

अलगोजा
यह रामसोर के नाम से प्रसिद्ध है। दो बांसुरियों के युग्म को एक साथ मुंह मे लेकर बजाया जाता है। खुदेड़ अथवा करुणा प्रधान गीतों को अलगोजे के स्वरों में गाया जाता है।

सारंगी
यह बद्दी या मिरासियों का प्रिय वाद्य है।

नगाड़ा
यह वाद्य यंत्र मुख्यतः प्राचीनकाल में युद्ध जैसे अवसरों पर प्रयोग किया जाता था। इसको मंदिरों में धुयांल नृत्य व गढ़वाल क्षेत्र में सरौं नृत्य के अवसर पर भी नगाड़े का प्रयोग किया जाता है।