कल्याणकारी माँ धारी देवी की पौराणिक गाथा

माँ धारी देवी मंदिर श्रीकोट, श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल) से करीब 15 किमी0 की दूर कलियासौड़ मार्ग व रुद्रप्रयाग से करीब 26 किमी0 की दूरी पर स्थित है। यह मार्ग प्राकृतिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। बरसात के दौरान यहाँ भूस्खलन की स्थिति बनी रहती है, लेकिन इस मार्ग को काफी हद तक सीमित व नियंत्रित किया जाता रहता है।

माँ धारी देवी प्रतिमां
धारी देवी "धार" शब्द से ही निकलता है। यह स्थल अलकनन्दा नदी के समीप बसा हुआ है। मंदिर में स्थित पुजारियों के अनुसार यह गाथा है कि एक रात जब भारी बारिश के चलते नदी में जल बहाव तेज था। धारी गाँव के समीप एक स्त्री की बहुत तेज ध्वनि सुनाई दी जिससे गाँव के लोग सहज गए। जब गाँव के लोगों ने उस स्थान के समीप जाकर देखा तो वहाँ पानी में तैरती हुई एक मूर्ति दिखाई दी। किसी तरह पानी से वो मूर्ति निकालकर ग्रामीणों ने निकली तो उसी दौरान देवी आवाज ने उन्हें मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित करने के आदेश दिये, धारी गाँव के लोगों ने इस स्थल को धारी देवी का नाम दिया।

मंदिर में माँ धारी की पूजा-अर्चना धारी गाँव के पंडितों द्वारा किया जाता है। यहाँ के तीन भाई पंडितों द्वारा चार-चार माह पूजा अर्चना की जाती है। पुजारियों के अनुसार मंदिर में माँ काली की प्रतिमां द्वापर युग से ही स्थापित है। कालीमठ एवं कालीस्य मठों में माँ काली की प्रतिमां क्रोध मुद्रा में है, परन्तु धारी देवी मंदिर में काली की प्रतिमां शांत मुद्रा में स्थित है। मंदिर में स्थित प्रतिमाएँ साक्षात व जाग्रत के साथ ही पौराणिककाल से ही विधमान है।

पौराणिक धारी देवी मंदिर
जनश्रुति के अनुसार मंदिर में स्थित माँ काली प्रतिदिन तीन रूपों में परिवर्तित होती है। प्रातः कन्या, दोपहर में युवती व सायंकाल में वृद्धा रूप धारण करती है। मंदिर में प्रतिवर्ष चैत्र व शारदीय नवरात्रा में हजारों श्रद्धालु अपनी मनौतियों के लिए दूर-दूर से पहुँचते हैं। मंदिर में सबसे ज्यादा नवविवाहित जोड़े अपनी मनोकामना हेतु माँ का आशीर्वाद लेने पहुँचते हैं। माँ धारी देवी जनकल्याणकारी होने के साथ ही दक्षिणी काली माँ भी कहा जाता है।

माँ धारी देवी मंदिर का इतिहास पौराणिक होने के साथ ही रौचक भी है। वर्ष 1807 से ही मंदिर में अनेकों प्राचीन अवशेष हैं, जो इसके साक्ष्य को प्रमाणित करती है। हालंकि 1807 से पहले बाढ़ के दौरान कुछ साक्ष्य नष्ट हो गए थे। बताया जाता है कि जब शंकराचार्य जी इस मार्ग से ज्योतिर्लिंग की स्थापना हेतु जोशिमठ जाते समय रात्री विश्राम श्रीनगर में किया। इस दौरान अचानक उनकी तबीयत बहुत खराब हो गयी थी, तत्पश्चात उन्होने माँ धारी देवी की आराधना की, जिसके कुछ समय बाद ही उनकी तबीयत में अचानक सुधार देख शंकराचार्य ने माँ धारी देवी की आराधना शुरू की।

नवनिर्मित धारी देवी मंदिर
वर्ष 1985 में श्रीनगर जल-विधुत परियोजना की स्वीकृति के पश्चात इस स्थान को भी डेम के अंतर्गत शामिल किया गया, जिसके बाद से ही स्थानीय लोगों द्वारा मंदिर को बचाने के हर एक प्रयास किए गए। आंदोलन के साथ ही राज्य, केंद्र सरकार व राष्ट्रपति को भी ज्ञापन भेजा गया, परन्तु किसी को भी आस्था के इस केंद्र को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। आंदोलन में साधु-संतों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों सहित उत्तराखंड के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया।

इस जल विधुत परियोजना की ऊंचाई 63 मीटर करने की योजना है। माँ धारी देवी भी इसी परियोजना की चपेट में रहा था, जिसके कारण परियोजना समिति द्वारा मंदिर को उक्त स्थल से हटाने का निर्णय लिया गया और मंदिर के उक्त स्थल से ही उसी के बराबरी में ऊंचा उठाया गया व नवनिर्माण मंदिर की स्थापना की गयी। वर्तमान में मंदिर का भाग नदी के ऊपरी सतह से काफी ऊंचा उठाया गया है।

16 जून, 2013 को जब माँ धारी देवी की प्रतिमां को उनके विस्थापित स्थान से हटाया गया। जिस दिन माँ की मूर्ति को उनके मूल स्थान से हटाया जा रहा था तो उसके कुछ समय पश्चात ही उत्तराखंड के चारों धामों में तबाही मच गयी, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान केदारनाथ में हुआ, तबाही से चारों ओर मौत का सैलाब नजर आ रहा था। इस समायावधि व दिन को संयोग के साथ ही संजोग कहें, इसको लेकर स्थानीय लोगों के साथ ही कई अन्य लोगों ने इसे माँ धारी की मूर्ति को हटाने को लेकर माँ धारी के प्रकोप से यह विनाश हुआ ऐसा माना जाता रहा है।