गढ़वाल के 52 प्राचीन गढ़

चाँदपुर गढ़ (चाँदपुर) चाँदपुर गढ़ का इतिहास ही अपने आप में लोकप्रिय व एतिहासिक रहा है। खश गढ़पति सूर्यवंशीय भानुप्रताप पाल की राजधानी उसके बाद पँवार वंश के संस्थापक कनकपाल की राजधानी रही। इसी वंशावली के अनुसार अजयपाल यहाँ 37 पँवार नरेशों ने शासन किया। इसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि को समझते हुए 2004 में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसका जीर्णोद्वार किया।

चौंड़ागढ़ (चाँदपुर) इस गढ़ के बारे में उत्तराखंड के लोगों में एक लोकोक्ति "तोपलों की तोप-ताप, चौंडलियों को राज, चौंडाल ठाकुरीगढ़" से ही इसकी विशेषता जानी जाती है।

तोपगढ़ (चाँदपुर) प्रतापी गढ़पति तुलसिंह जिसने तोप ढलवायी थी, इसे तोपल ठाकुरी गढ़ के नाम से भी जाना गया।

राणिगढ़ (चाँदपुर) खाती ठाकुरी गढ़।

कोलपुरगढ़ या कौलपुरगढ़ (चाँदपुर) कोब गाँव के कुछ दूरी पर कौनपुरगढ़ है, जहाँ प्राचीन अवशेष मिले, जिसके बारे में यह कहा गया कि यह राजा कनकपाल का गढ़ था।

बधाणगढ़ (बधाण) यह गढ़ पिंडर नदी के किनारे बधाणी ठाकुरों का गढ़ रहा है।

लहुबागढ़ (चाँदपुर) रामगंगा कि बायीं ओर स्थित है। नदी से लंबी सुरंग ही इसका अस्तित्व मिलता है। दिलेश्वर सिंह और प्रमोद सिंह यहाँ के प्रतापी गढ़पति थे।

जोन्यगढ़ (अजमीर पल्ला) सेनापति माधो सिंह भण्डारी ने पहली बार युद्ध में जोन्यगढ़ जीता।

ईड़ागढ़ (रवाई, बड़कोट) इस गढ़ के बारे में दो मत हैं, जिसमें पहला कर्णप्रयाग-नौटी मोटर मार्ग (आदिबद्री के समीप) पर मजियाड़ा गाँव के पास टीले जहाँ प्राचीन ईड़ा-बधाणी गाँव था वहीं ईड़ागढ़ था। दूसरा मत रवाईं का यह गढ़ किसी रुपचन्द नमक ठाकुर द्वारा बनाया गया था।

धन्यागढ़ (ईड़वल्स्यूं) धौन्याल ठाकुरी गढ़।

साबालीगढ़ (मल्ला सलाण, साबली) साबालिया बिष्टों का गढ़।

गुजड़गढ़ (मल्ला सालाण) सिली गाँव से गढ़ तक सोपानयुक्त सुरंग, लगभग छः घेरे में गहरी खाइयाँ तथा दुर्ग के ध्वंस अवशेष विधमान हैं।

बदलपुर गढ़ (तल्ला सालाण) चिणबौ से ऊपरी गढाधार पर्वत जहाँ गढ़ के अवशेष विराजमान है।

दशौलीगढ़ (दशौली) यह गढ़ राजा मानवर का गढ़ रहा है।

देवलगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का पूरा नाम वित्वाल के नाम से जगत गढ़ था। 12वीं शताब्दी में कांगड़ा नरेश देवल के नाम से इस गढ़ का नाम देवलगढ़ रखा गया। इस गढ़ को राजा अजयपाल ने अपने अधीनस्थ कर लिया था।

नायलगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ अंतिम ठाकुर भग्गु का  था। यह कठलीगढ़ के समीप है।

अजमेरी गढ़ (गंगसलण) यह गढ़ मुख्य रूप से चौहनों व पयालों का गढ़ रहा है। इस गढ़ को हुसैनख़ान टुकड़िया ने लूटा था।

कोलीगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ बछ्वाण ठाकुरी के अंतर्गत रहा है।

लोइगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का वर्तमान नाम ल्वैगढ़ है।

नवासुगढ़ (देवलगढ़) नावसु गाँव के अंतर्गत अकालगढ़ के रूप में भी जाना जाता है, परंतु इस बारे में अभी को पूर्ण साक्ष्य नहीं है।

भुवनागढ़ (देवलगढ़) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

लोधाण्यागढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

हियणीगढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

डौणीघआनगढ़ भुवनागढ़ के बाद इस गढ़ का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण उल्लेख स्पष्ट नहीं।

नागपुरगढ़ (नागपुर) यह गढ़ अंतिम ठाकुरी राजा भजन सिंह का था। इस गढ़ में नाग देवता का मंदिर स्थापित है।

कोटागढ़ (जौनपुर) इस गढ़ का वर्णन काँड़ागढ़ के नाम से उल्लेख मिलता है, जिसमें बिष्ट ठाकुरी गढ़ भी कहा गया है।

कंडारागढ़ (नागपुर) दुमागदेश नरेश मंगलसेन जो कि एक प्रतापी राजा था, लेकिन बाद में अजय पाल ने इस गढ़ पर आक्रमण कर जीत लिया। हालांकि इस गढ़ के बारे में भी अनेक मत हैं।

लंगूरगढ़ (गंगा सलाण) इस गढ़ में भैरव का मंदिर होने के कारण इस गढ़ को भैंरव गढ़ भी कहा जाता है। इस गढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज रहा।

पावगढ़ या मावगढ़ (गंगा सलाण) गढ़वाल के सात गढ़ों में से एक बताया जाता है। भानधा और भानदेव असवाल का शासन रहा।

इडवालगढ़ (बारहस्यूं) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

बागड़ीगढ़ (गंगा सलाण) बागड़ी या बगुड़ी (नेगी) जाति का गढ़।

गड़कोटगढ़ (गंगा सलाण) बगडवाल बिष्टों का गढ़।

खत्रीगढ़ (रवाई) गोरखा आक्रमण से पहले यह गढ़ स्थापित पावर नदी के दायीं तट पर स्थित है।

जौनपुरगढ़ (जौनपुर) यमुना के बाएँ किनारे पर स्थित यह गढ़ के पास अगलार-यमुना का संगम है।

फल्याणगढ़ (बारहस्युं) इस गढ़ के गढ़पति शमशेर सिंह के अधीन रहा, उन्होने इस गढ़ को फल्याण ब्राह्मणों को दान दे दिया था।

नैलचामिगढ़ (भील्लंग) स्वाति ग्राम क्षेत्र मेन संगेला बिष्टों का गढ़।

बारहगढ़ (भरदार) मन्दाकिनी की दायीं ओर लस्तूर तथा डिमार की उपरली घाटी में स्थित है।

कठूडगढ़ (चिल्ला) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरदरगढ़ (भरदार) अलकनंदा की दायीं ओर स्थित यह गढ़ तीन ओर से चट्टान, उत्तर से प्रवेश का दुर्गम मार्ग। कहा जाता है कि मृत्यु दण्ड वाले बंदियों को यहाँ छोड़ा जाता था।

चौंदकोटगढ़ (चौंदकोट) प्राचीरों, खाइयों सहित गढ़ों के अवशेष यहाँ विधमान हैं।

बनगढ़ (बनगढ़) अलकनन्दा की दायीं ओर, यह गढ़ सोनपाल के अधीन रहा। यहाँ पर राजराजेश्वरी का प्राचीन मंदिर है।

भिलागगढ़ (भील्लंग) 24वां पँवारवंश राजा सोनपाल का शासन रहा। खाल ग्राम में गंवानागाड़ व भिल्लंगना के संगम पर स्थित है।

हिंदाऊगढ़ (भील्लंग, हिंदाव) चांजी गाँव के समीप भवन के अवशेष से इस गढ़ का अस्तित्व सामने आया।

कुईलीगढ़ (नरेन्द्रनगर) भागीरथी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। गढ़ में घंटाकर्ण का मंदिर भी है।

सिलगढ़ (भरदार, सिलगढ़) मन्दाकिनी नदी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सबल सिंह सजवाण रहे।

चंवागढ़ (उदयपुर, मन्यार) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरपूरगढ़ (नरेंद्रनगर) गंगा की दायीं ओर, तैडीगढ़ के पश्चिम क्षोर पर स्थित है। इस गढ़ के गढ़पति अमरदेव तथा तैड़ीगढ़ के गढ़पति तनया तिलोमा थे।

मुंजणीगढ़ (नरेन्द्रनगर) इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सुलतान सिंह सजवाण थे।

उपुगढ़ (उदयपुर) कफ़्फ़ु चौहान इस गढ़ के गढ़पति थे, जिसे राजा अजयपाल ने अपने अधीन किया था।

मूंगरागढ़ (रवाई) इस गढ़ तीनों दिशाओं में यमुना बहती है तथा दक्षिण से इस गढ़ तक पहुँचने के लिए चट्टान काटकर चढ़ने के लिए सोपान बने हैं, इस गढ़ में अब रौंतेला ठाकुरों के घर हैं।

रेकागढ़ (प्रतापनगर) इस गढ़ का नाम उपली रमोली के एक गाँव के नाम पर है।

चोलागढ़ (प्रतापनगर) मोल्या गाँव के समीप इस गढ़ के अन्तिम गढ़पति घांगू रमोला थे।

पैनखंडागढ़ (पैनखंडा) यह गढ़ बुठेर जाति का गढ़ माना जाता है।

उत्तराखंड की संस्कृति की पहचान उसकी ऐतिहासिक संस्कृति से जुड़ी हुई है, जिसका विवरण गढ़वाल की 7वीं सदी का उल्लेख मिलता है। मनु के विषय में यह वर्णन मिलता है कि वे अपने माता-पिता  वैवस्वत तथा पुत्र इक्ष्वाकू सहित जलप्लावन के बाद माणा आए। यहाँ उन्होने स्वराज की वृद्धि की और मनु नाम से मानसखण्ड नाम की उत्पति हुई।

देवकालीन शासन व्यवस्था
सर्वप्रथम आर्य नरेश दक्ष प्रजापति जो कि ब्रह्मा के प्रथम पुत्र थे। दक्ष प्रजापति की 13 कन्याओं में सबसे बड़ी दिति और सबसे छोटी अदिति थी। अदिति से 12 देव और दिति से दैत्यों कि उत्पति हुई। आदित्यों में इंद्र बड़े तथा विष्णु (वामन) सबसे छोटे थे। इनकी उत्पति स्थल उत्तराखंड ही है। देवकालीन शासन के समय चार शासन क्षेत्रों का पता चलता है, जिनमें कैलास, अलकपुरी, देवपुरी व हिमक्षेत्र हैं, यह क्षेत्र उत्तराखण्ड के अंतर्गत ही आते हैं।

उत्तर वैदिककाल
आर्यों के छोटे-छोटे राज्य जो दो वंश मानव (मनु) से सूर्यवंश व चंद्रवंश थे। सूर्यवंश के प्रथम राजा मनु का पुत्र इक्ष्वाकू हुआ। इसी वंश में सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, दशरथ व रामचन्द्र जैसी प्रतापी राजा हुए, जबकि चन्द्र वंश का प्रथम राजा पुरुरवा थे। इनके पाँच पुत्रों ने पाँच वंशों जिनमें यदु के यादव तथा पुरू के पौरव की स्थापना की। इसी वंश में राजा भरत हुए उन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भरत का जन्म शकुंतला के गर्भ से हुआ तथा शकुंतला का जन्म कन्व ऋषि के आश्रम (कन्वाश्रम) मालिन नदी के तट पर जो कोटद्वार में स्थित है, के समीप माना गया।

मध्यकाल
उत्तराखण्ड का पौराणिक इतिहास महाभारतकाल के पश्चात ही मिलता है। इस राज्य का विस्तार सतलुज, यमुना, गंगा व काली नदी के क्षोरों से सटकर छ: छोटे-छोटे प्रदेशों से मिलकर बना। सन 340 ई0 में समुद्रगुप्त का राज्यारोहण हुआ।कर्तृपुर (वर्तमान नाम जोशिमठ) में खास राजा ने अपना शासन चारों तरफ फैला चुके थे। कार्तिकेयपुर के खास राजा से समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसका राज्य पर विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त) के राज्यकाल से स्कंदगुप्त के राज्यकाल तक सम्पूर्ण गढ़वाल-कुमाऊँ गुप्त शासकों के अधीन रहा।

गढ़वाल का इतिहास (पँवार वंश)
चाँदपुर गढ़ी में भानुप्रताप नाम का राजा था। सन 612 ई0 में धारनगरी (गुजरात) निवासी पँवार वंश का राजकुमार कनकपाल तीर्थ स्थलों के दर्शन के उद्देश्य से उत्तराखण्ड आया था और वह इसी दौरान चाँदपुरगढ़ पहुँचा। राजा भानुप्रताप ने इसी समय अपनी छोटी पुत्री का विवाह कनकपाल से किया, इसके साथ ही उनको राजगद्दी भी सौंप दी। यहीं से पँवारवंश की शुरुआत हुई। राजा कनकपाल के बाद 37वां राजा अजयपाल हुआ। उसने गढ़वाल के सभी गढ़पतियों को पराजित कर 52 गढ़ों को संगठित कर इस पूरे क्षेत्र को गढ़वाल से विस्थापित किया। पहले उन्होने चाँदपुर गढ़ से अपनी राजधानी देवलगढ़ व 1517 ई0 में श्रीनगर को राजधानी बना ली। कहा जाता है कि गढ़वाल के क्षेत्र का निर्धारण अजयपाल ने ही किया।

अजयपाल के बाद सहजपाल, बलभद्रभाल (शाह), मानशाह, सामशाह और महीपतशाह का शासन संघर्षपूर्ण रहा। महीपतशाह के राज्यकाल सन 1625-35 में संघर्ष को स्थिर करने शांत करने के लीये माधो सिंह भण्डारी और लोदी रिखोला दो वीरों को भोट भेजा गया। महीपतशाह की मृत्यु के बाद  उनके पुत्र पृथ्वीपातिशाह के नाबालिक होने के कारण उनकी पत्नी कर्णावती ने सन 1635 एलएस 1646 तक शासन की बागडोर संभाली।

गोरखा शासन
सन 1780 ई0 में ललितशाह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र जयकृतशाह को गढ़वाल कि राजगद्दी सौंपी गयी। 1786 तक उनके राज किया उनके राज अधिकारियों के षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा और देवप्रयाग में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद प्रद्युम्नशाह कुमाऊँ से गढ़वाल आ गए और गढ़वाल के राज सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उनके छोटे भाई पराक्रमशाह ने षड्यंत्र पर षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया जिसके कारण कुमाऊँ व गढ़वाल में अव्यवस्था फैल गयी। जिसके बाद हर्षदेव के आमंत्रण पर सन 1790 ई0 में नेपाली गोरखा सेना ने गोरखा नरेश रणबहादुर के नेतृत्व में कुमाऊँ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन गढ़वाल के शौर्य के आगे उनकी न चली और लंगूरगढ़ी से आगे न बढ़ पाये।

कुमाऊँ का इतिहास (चंदवंश)
कत्युरी राजवंश तक ही पहले सम्पूर्ण उत्तराखण्ड एक ही शासन के अंतर्गत रहा, लेकिन शासन के पतन के बाद गढ़वाल के पँवारवंश और कुमाऊँ में चंदवंश का शासन स्थापित हो गया था। कुमाऊँ में चंदवंश के प्रथम राजा सोमचंद 1700 ई0 में गद्दी पर विराजमान हुए। पांवर वंश और चंदराज वंश अपने संस्थापक आठवीं सदी के आसपास बताते हैं।