नारी शक्ति की प्रेरणा है ममता रावत

ममता रावत अपने परिवार के साथ (दायीं ओर)
ममता रावत वह सख्सियत है, जो अपने साहस के लिए जानी जाती है। लोगों की मदद हो या पर्वतों के कठिन राहों को आसानी से पार करना यह उसका परिचय बताता है। आज उनका नाम उत्तराखंड के इतिहास के साथ ही पूरे देश को उन पर गर्व है। ममता का बचपन कठिनाइयों व चुनौतियों से भरा रहा, संघर्ष जीवन के दौर ने उनको काफी हद तक इस तरह कठोर बना दिया था।

ममता का जन्म उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के अंतर्गत ग्राम बंकोली में हुआ। बचपन में ही उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया, पारिवारिक आर्थिक कमजोरी के कारण उनके ऊपर अतिरिक्त जिम्मेदारियों का दबाव पड़ गया। बचपन में माँ की बीमारी के चलते अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दी। कुछ समय पश्चात उन्होने  स्थानीय नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में पर्वतारोही का बसिक प्रशिक्षण लिया।

ममता प्रशिक्षण के साथ ही अपने परिवार की जिम्मेदारियों को भी भली-भाँति निभाती रही, लेकिन राज्य सरकार की ओर से उनको कोई आर्थिक मदद नहीं मिली, लेकिन उनके साहस की चर्चा आज सभी करते हैं, उत्तरकाशी के साथ ही उनको आज पूरा देश सलाम करता है, आइये जानते हैं उनके साहस की कुछ बातें:

ममता रावत
16 जून, 2013 की वो भयानक रात शायद ही कोई भूल पाएगा जब पूरा उत्तराखण्ड प्रकृति के प्रकोप से कराह रहा था। हजारों घर-परिवार काल के इस प्रकोप में लीन हो गए, प्रकृति के इस प्रकोप से लोग इतने लाचार थे कि अपने बचाव के लिए कुछ सोच पाना भी मुश्किल हो रहा था। गाँव-परिवार उजाड़ गए, लोग डरे और सहमें हुए थे। कोई भी भूलकर मदद के लिए साहस दिखाना शायद ही किसी के लिए सामान्य होता।

चारों ओर तबाही ही तबाही थी, प्रकृति का कहर इस कदर टूटा कि कोई भी इससे वंचित न रहा। इसी तबाही में ममता ने भी अपना घर बर्बाद होते देखा लेकिन कहते हैं कि हौंसला सभी जगह काम आते हैं ममता इसकी एक मिशल है। उन्होने प्रकृति के इस प्रकोप को अपनी नियति बना देने के बजाय लोगों को इस त्रादसी में लोगों की मदद के लिए अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना आगे बढ़ी।

जब द्यारा में 30 बछों के एक ग्रुप को एडवेंचर कैंप द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इस दौरान अचानक बढ़ का जलस्तर बढ़ने के साथ ही तेज बहाव के कारण रास्ते टूट गए और पल भी बह गया था। ममता अकेले ही इन बच्चों की मदद के लिए आगे बढ़ी। इस दौरान उन्होने अकेले ही वहाँ से बच्चों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया और फिर उसी स्थान पर लोगों की मदद के लिए निकल पड़ी। इस दौरान वहाँ बाढ़ में फँसकर बेहोश हुई एक बुजुर्ग महिला को अपनी पीठ पर लादकर विषम रास्ते वाले पहाड़ों से होकर वह लगातार 03 घंटे तक भागती रही ताकि उस महिला को वह हेलीकाप्टर से किसी अन्य स्थान पर सुरक्षित पहुंचाया जा सके। इस विकट परिस्थिति में वह लोगों को राहत शिविर तक कंबल, खाना, पानी व अन्य सुविधाओं को अपने माध्यम से सेवा देती रही, उनके इस काम को लोगों ने खूब सराहा। 

ममता के इस साहसिक कार्य की चर्चा उन दिनों देश के सभी समाचार पत्रों व टीवी चैनलों के माध्यम खूब सराहा गया। इसके साथ ही नेहरू पर्वतारोहण संस्थान ने भी उनकी खूब सराहा गया। 03 जनवरी 2016 को स्टार प्लस चैनल के कार्यक्रम जिसको बॉलीवुड के महानायक श्री अमिताभ बच्चन जो कि इस कार्यक्रम को होस्ट कर रहे थे, उनके द्वारा ममता रावत को इस कार्यक्रम में बुलाया गया व उनको लोगों की मदद करने हेतु पुरस्कारित किया गया व उनके कार्य की खूब सराहना की गयी। आज ममता रावत नारी शक्ति की एक पहचान ही नहीं बल्कि खुद को कमजोर समझने वाली महिलाओं के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत है।

जागर महिला के रूप में विख्यात बसंती देवी

अपने जागर विधाओं से सबको मंत्रमुग्ध करने वाली उत्तराखण्ड एक मात्र जागर गायिका महिला बसन्ती देवी का जन्म 1953 में देवाल ब्लॉक के अंतर्गत ग्राम ल्वाणी, चमोली जनपद में हुआ। अपने जागर गीतों से अपनी विख्याति की इस पड़ाव में उन्होने साधारण जीवन के तहत कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा था। बसन्ती देवी जो कि पाँचवीं तक अपनी शिक्षा पूर्ण कर पायी थी और मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह श्री रणजीत सिंह के साथ हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात वह अपने पति के साथ जालंधर चली गयी, जहां पर कुछ समय बिताने के बाद उन्होने संगीत की शिक्षा ग्रहण की।

जब उनकी इच्छा संगीत के क्षेत्र में और आगे बढ़ने की हुई तो उन्होने संगीत की परीक्षा देने की सोची, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह इस परीक्षा में शामिल न हो सकी, इससे वह हताश हुई और कुछ दिनों बाद अपने गाँव वापस आ गयी। जिस दौरान वह अपने गाँव लौटी तो उस समय सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में आंदोलनों का दौर चल रहा था। समय के साथ ही वह भी आंदोलनों में शामिल होने लगी और आंदोलनों से प्रभावित होकर उन्होने आंदोलनों पर गीत लिखने शुरू कर दिये। आंदोलन में शामिल लोगों को एकत्रित कर नुक्कड़, गीत व जागर करने लगे, जिससे लोग उनसे बहुत प्रभावित होने लगे और उनके गीतों की खूब प्रशंसा होने लगी। लोगों के निवेदन पर उन्होने आगे संगीत की शिक्षा लेने की सोची।

1996 में स्वर परीक्षा में शामिल होने के लिए गयी और सफलता भी मिली, जिसके बाद उनको आकाशवाणी पर गायन के लिए आमंत्रित किया गया। रेडियो के उस दौर में जब लोगों तक उनकी आवाज पहुंची तो पूरे उत्तराखण्ड में उनकी प्रशंसा होने लगी। उन दिनों लोग ज़्यादातर रेडियों पर निर्भर होते थे। हर रोज जब उनकी प्रस्तुति आकाशवाणी पर प्रसारित की जाती थी तो लोगों में भी उनके गीतों का बेसब्री से इंतजार रहता था।
1998 में पहली बार गढ़वाल महासभा ने उनको गायन के लिए आमंत्रित किया। यह बंसन्ती देवी का पहला लोकमंच कार्यक्रम था। यहाँ पर लोगों ने उनके गायन को सामने देखकर लोगों में काफी उत्साह था। यहाँ पर गायन के बाद लोगों ने उनकी प्रस्तुति की खूब सराहना की। आज भी उत्तराखण्ड में जागर प्रस्तुति के लिए उनको सबसे पहले स्थान दिया जाता है। जिसके कारण यह भी है कि वह उत्तराखण्ड की पहली ऐसी महिला है जिसने जागर में अपनी विख्याति बखूबी निभाई है।

बसन्ती देवी ने पूरे उत्तराखण्ड में अपनी गायन ख्याति से सबको मंत्रमुग्ध किया ही इसके साथ ही कारोबार क्षेत्र में भी उनको ब्रांड अम्बेस्ड़र बनाने की होड लगी। वर्तमान में वह उत्तरांचल ग्रामीण बैंक की ब्रांड अम्बेस्ड़र हैं। इसके साथ ही उनको अखिल गढ़वाल सभा देहरादून, रूपकुंड महोत्सव देवाल, पंडित विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान देहरादून, उत्तराखण्ड शोध संस्थान देहरादून व उत्तरायणी जन कल्याण समिति बरेली द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

पारम्परिक लोक संगीत व जगरों में उनकी संवेदना तो रही ही है, इसके साथ ही उनके पहनावे में भी उत्तराखण्ड की पारम्परिक संस्कृति व भेष-भूषा अपने जीवन के लोक पारम्परिक स्तर पर जीना ही पसंद कराते हैं।

उत्तराखंड की झाँसी की रानी तीलू रौंतेली

हम जब भी पहाड़ी नारी की वीरता व उसकी शक्ति का अवलोकन जब भी करते हैं तो उसमें पहाड़ की झाँसी की रानी के नाम से जाने जानी तीलू रौंतेली की वीरगाथा उत्तराखंड के इतिहास में अमर हो गयी। सत्रह शताब्दी में गुराड़ गाँव, परगना चौंदकोट गढ़वाल में जन्मी शौर्य व साहस की धनी इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में आज भी याद किया जाता है। तीलू रौंतेली 15 वर्ष की आयु से ही अपनी वीरता व साहस के लिए जाने जानी लगी, उन्होने अपनी अल्प आयु में ही सात युद्ध लड़कर विश्व की एकमात्र वीरांगना है।

तीलू रौंतेली थोकदार वीर पुरुष भूप सिंह गोर्ला की पुत्री थी। 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह ईडा गाँव के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ तय हो गयी थी। कुछ दिनों बाद उनके मंगेतर, पिता व दो भाइयों के युद्धभूमि  में प्राण न्यौछावर हो गए थे। उनके इसी प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को युद्ध भूमि में लड़ने के लिए विवश कर दिया। शास्त्रों से सम्पूर्ण सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और दो सहेलियों बेल्लू और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए कूच किया।

उनके इस साहस की चर्चा दूर-दूर के गाँव में होने लगी सबसे पहले उन्होने खैरागढ़ (कालागढ़ के समीप) को कत्यूरियों से मुक्त कर उमटागढ़ी पर आक्रमण किया फिर अपने सैन्य दल को लेकर वह सल्ट महादेव पहुँची, जहां उन्होने अपने शत्रु दल को खदेड़ा। इस विजयी के उपरांत तीलू भिलण भौन की ओर चल पड़ी। तीलू की दोनों सहेलियों ने इसी युद्ध में वीरगति प्राप्त की।

चौखुटिया तक अपने गढ़ राज्य का विस्तार करने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट पहुँची। इसी बीच कलिंगा खाल में उसका शत्रु से युद्ध हुआ। वीरोंखाल के युद्ध में तीलू के मामा रामू भंडारी तथा सराईंखेत के युद्ध में उसके पिता भूप सिंह गोर्ला युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में कत्युरी सैनिकों का सामना कर शत्रु को पराजित कर अपने पिता का बदला लिया। यहीं पर उसकी प्रिय घोड़ी बिंदुली भी शत्रु दल का निशाना बनी। तल्ला काँड़ा शिविर के समीप पूर्वी नयार नदी में स्नान करते रामू रजवार नामक एक कत्युरी सैनिक ने धोखे से तीलू रौंतेली पर तलवार से हमला कर उसकी जान ले ली।

आज भी हम उत्तराखंड की इस वीरांगना नारी की वीरता की कहानी उत्तराखंड के लोकगीतों में सुनते आए हैं। उनके ऊपर अनेकों गीतों से उनके जीवन को सँवारा गया है और उनकी वीरता व साहस का परिचय उनके नाम से ही जाना जाने लगा। उत्तराखंड में यह पहली एक ऐसी नारी थी, जिसने युद्धभूमि में कूदकर अपने शत्रुओं को पराजित कर इतिहास अपने नाम किया। उनके इस अदम्य साहस का परिचय उनकी इस ऐतिहासिक गाथा के साथ हमेशा अमर रही और रहेगी।

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक श्री नरेंद्र नेगी जी द्वारा भी उत्तराखंड की नारियों की वीरता व साहस को दर्शाता यह गीत आज भी लोग कई वीरगाथाओं को गीतों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं, ऐसा ही इस गीत के कुछ अंश हैं:-

पति व्रता नारी एख, बांध कीसाण छीन, बांध कीसाण छीन
तीलू रौतेली एख, रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन
रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन हो….कथगा रौंतेली स्वाणी चा, हा …कथगा रौंतेली स्वाणी चा 
भांडू का पवड़ा सुणा, बीरू का देखा गढ़
नरसिंह, नागराजा, पंडों का देखा रण
तुम ते लाकुड, दमो, ढोलकी.. धै लगे की, भटियाणी च,
कथगा रौंतेली स्वाणी चा
धरती हमरा गढ़वाल की, धरती हमरा गढ़वाल की, कथगा रौंतेली स्वाणी चा,

उत्तराखंड का बलिदानी वीर पुत्र माधो सिंह भण्डारी की गाथा

उत्तराखंड की लोक गाथाओं में जब भी वीरता और बलिदानी की वीर गाथा सुनी जाती है तो उसमें माधो सिंह भण्डारी का नाम जरूर जुड़ जाता है। इस वीर को न केवल वीरता के लिए जाना गया बल्कि उसके त्याग व स्वाभिमान की गाथा को सुनकर आज भी लोगों का दिल सहम पड़ता है। मैंने जब इस वीर की गाथा एक गाँव के लोक संस्कृति कार्यक्रम के तहत जब देखि तो वहाँ बैठी औरते और पुरुष जो इस कार्यक्रम को देख रही थी, उनकी आँखें नरम थी, शायद ही उस दौरान कोई ऐसा व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं था, जिसकी आँखों में आँसू न दिखाई दे रहा हो। उत्तराखंड की संस्कृति में इस बलिदानी वीर की गाथा इतिहास के लिए अमर हो गयी।

माधो सिंह भण्डारी का जन्म टिहरी जनपद के मलेथा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सोणबाण कालो भण्डारी था। उनके पिता वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी बुद्धिमता और कौशलता को देखते हुए उस दौरान के तत्काल गढ़वाल नरेश ने उनको बड़ी जागीर भेंट की। माधो सिंह भी अपने पिता की बहादुरी और स्वाभिमानता को देखकर छोटी उम्र में ही श्रीनगर के महिपति शाह की सेना में भर्ती हो गए। उनसे प्रभावित होकर गढ़वाल नरेश ने उनको अपनी सेनापति के रूप में नियुक्त किया।

माधो सिंह सेनापति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के साथ ही वहाँ के स्थानीय लोगों के सेवा में भी जुटने लगे। लोग भी उनसे खासा प्रभावित हुए। माधो सिंह ने कई नए क्षेत्रों में राजा के राज्य विस्तार से लेकर अनेक किलों का निर्माण करवाया। उस दौरान मलेथा गाँव की जमीन खेती के लिए उपयोगी नहीं थी और न ही वहाँ अन्नाज की पैदावार हो पाती थी, जिसके कारण गाँव में लोग भूखे प्यासे रहने लगे। गाँव में अकाल की आकस्मिक स्थिति उत्पन्न होने लगी।

माधो सिंह भण्डारी एक बार जब अपने गाँव वापस आए तो गाँव में अकाल जैसी परिस्थिति से जूझ रहे लोगों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। राजमहल में रहते हुए उनको काफी समय बीत चुका था। भोजन से लेकर शान-बान की शोहरत से परिचित माधो सिंह भण्डारी जब अपने घर पहुंचे तो उन्होने अपनी पत्नी से खाना मांगा, खाना उचित न होने पर उन्होने पत्नी पर गुस्सा हुए, जिसके बाद पत्नी ने उनको बदहाली खेतों को दिखाया तो वो बैचेन दिखाई दिये, तत्पश्चात उन्होने खेतों और गाँव की खुशहाली वापिस लाने के लिए प्राण किया।

गाँव के निचले भाग में चंद्रभागा नदी बहती है, लेकिन बड़ी चट्टानों और पर्वतों के बीच से नदी को खेतों तक लाना आसान नहीं था, जिसका सिर्फ एक ही रास्ता था कि सुरंगों के निर्माण करके पानी को खेतों में प्रवाहित किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए माधो सिंह भण्डारी ने सुरंग खोदने विशेषज्ञों और गाँव वालों की मदद से शीघ्र ही कार्य शुरू किया। इस कार्य में महीनों गुजर गए, कड़ी मेहनत के बाद सुरंग का निर्माण किया गया। सुरंग के ऊपरी सतह पर मजबूत पत्थरों व लोहे की कीलों का प्रयोग किया गया। इसकी मजबूती का अहसास आज भी भीषण प्रकृतिक आपदा का आने के बाद भी सुरंग को कई से भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

सुरंग निर्माण का कार्य सम्पूर्ण हो गया था लेकिन संकट अभी भी टला नहीं था। पानी सुरंग के अंदर प्रवेश नहीं कर पाया, जिसको लेकर माधो सिंह भण्डारी परेशान रहने लगे। एक रात सपने में किसी अदृश्य चमत्कारी ने उनको सुरंग में पानी के प्रवेश को लेकर पुजा-अर्चना के साथ ही अपने पुत्र की बलि देने को कहा। जिसके बाद माधो सिंह भण्डारी कई ज्यादा परेशान हो गए कि आखिर पुत्र की बलि देना उचित होगा, वो पहले तो इसके लिए तैयार नहीं हुए, गाँव वालों कि व्याकुलता व मजबूरी को देखते हुए उन्होने अपने एक मात्र पुत्र गजे सिंह को यह बात बताई पुत्र ने अपनी सहमति दे दी, तत्पश्चात उन्होने अपने पुत्र की बलि देकर अपने पुत्र को गाँव वासियों के हित में बलिदान कर दिया।

पुत्र के सर को सुरंग के मुख की ओर रख दिया गया और इस बार जब पानी मोड़ा गया तो इस बार पनि सुरंग से होते हुए उनके पुत्र के सर को अपने बहाव में बहकर ले गया और खेतों में प्रवाहित हो गया। इस बलिदान के बाद से आज तक मलेथा की खेती उपजाऊ और खुशहाली है।

माधो सिंह भण्डारी की निस्वार्थ जनसेवा व बलिदान की भावना आज भी अनुकरणीय है। उनके इस बलिदान को आज सम्पूर्ण उत्तराखंड शायद ही कभी भूल पाये, उनके इस बलिदान का कर्ज शायद ही मलेथा अदा कर पाये, लेकिन उनकी इस वीर गाथा को हम सदियों तक याद करते रहेंगे।


नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों ने खूब परखा पहाड़ का नजरिया

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी पहचान जिस संगीत की साख पर बनाई है वह अपने आप में पहाड़ की परम्पराओं को दर्शित करता है। अपने मौलिक पहचान को पहाड़ के उन सभी परम्पराओं से जोड़े रखा है, जो उनके गानों में अक्सर सुनने को मिलता है।

"डांडी कांठी को हयून गौलिगी होलु, मेरा मैत कु बोण मौलिगी होलु" पहाड़ी नारी की विशेषता हो या पुरुष वर्ग के व्यक्तित्व को दर्शाता उनका संगीत लोगों के कंठ पर हमेशा ही सुना जा सकता है। पहाड़ की परंपरा हो या वहाँ का जन-जीवन, उनके गीतों में एक सचित्र वर्णन आंक्षाओं पर ऐसा उतर जाता है कि मानों शब्दों में जीवन्त वाणी पुकारती हो।

पहाड़ की खूबसूरती हो या प्रकृतिक संरचना की विशेषता को निखारना उनके संगीत का पहला और अहम हिस्सा रहा है। अपने अधिकतर गानों में उन्होने पहाड़ की भूमिका को अहम स्थान दिया गया। हिमालय का सौन्दर्य और लोक जनजीवन को अनुपम शब्दों से बखूबी निखारकर लोगों को मनमोहित किया है।

"मेरे को पहाड़ी मत बोलो जी, मै तो देहरादून वाला हूँ" इस गाने के माध्यम से उन्होने पहाड़ के उन लोगों को एक तरफ से समझाने की कोशिश की है कि देहरादून के साथ ही पहाड़ के लोग किसी भी बड़े शहर में क्यों न हो अपनी संस्कृति, अपनी बोली, अपने लोग, अपनी परम्पराओं को नहीं भूलना चाहिए। इसके साथ ही पहाड़ से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है, जिनमें देहरादून में अधिकतर पहाड़ी लोग अपना डेरा बसा चुके हैं, लेकिन आज उन पर रंग ऐसा चढ़ा है कि पहाड़ी कहने पर जैसे उनको शर्म आने लगती हो देखा जाए तो देहरादून में पूरा ही उत्तराखंड है और उत्तराखंड में पहाड़ के ही लोग बसे हैं तो ऐसे में कैसे हम शहरी हो गए कैसे अपने पहाड़ी परम्पराओं को भूलकर शहरी अंदाज में बोलने लगे हैं।

टिहरी डैम पर जिस संगीत का उन्होने अपने शब्दों में बयां किया वो आज भी लोगों के दिल को रोने पर मजबूर कर देता है। लगभग 40 वर्षों से अधिक के इस सफर में उन्होने स्वलिखित और 5 हजार से ज्यादा गीत भी हैं। लोक संस्कृति और लेखों की संख्या करीब 5 हजार से ज्यादा है।

यहाँ तक कि नरेंद्र सिंह नेगी जी ने उत्तराखंड फिल्मों में भी अपना अहम योगदान दिया है। जिनमें कुछ फिल्म फ़्योंली (1983 गायन), घरजंवें (1985 गीत-संगीत, गायन), बेटी-ब्वारी (1988 गीत, संगीत, गायन), बंटवारु (1989 गीत, संगीत, गायन), फ़्योंली ज्वान ह्वेगी (1992 गीत, संगीत, गायन), छम घुंगरू (गीत, संगीत, गायन), जै धारी देवी (1997 गीत, संगीत, गायन), सतमंगल्या (1999 गायन), औंसी की रात (2004 गीत, संगीत, गायन), चक्रचाल (2006 गीत, संगीत, गायन), मेरी गंगा हौली त मैंमू ओली (2008 गीत, संगीत, गायन) आदि प्रमुख हैं।

यौहारों और ऋतु परम्पराओं की विशेषता को भी अपने गानों में खूब ढाया है। सामाजिक मुद्दों, पहाड़ आर्थिक व्यवस्था, नारी व्यक्तित्व व पहाड़ से लोगों के पलायन जैसी समस्याओं को स्वाभाविक रूप से केन्द्रित किया है। पहाड़ की हर एक पहल को उन्होने अपने स्वर के जरिये चित्रण किया है। नेगी जी सम्मान के हकदार हैं, पहाड़ में उनका सम्मान हमेशा ही रहेगा।