लोकगीतों और लोकनृत्य की विधाएँ आदिकाल से ही चली आर ही हैं। लोक कलाओं में लोकगीत और संगीत, लोकवाद्यों के बिना अधूरे हैं। उत्तराखंड में लगभग 36 प्रकार के प्रमुख लोक वाद्य प्रचलित है। जिनकी कुछ श्रेणियाँ इस प्रकार है:-
- घन वाद्य: वीणाई, कांसे की थाली, मजीरा, घाना/घानी, घुँघरू, केसरी, झांझ, घण्ट, करताल, ख़ंजरी, चिमटा।
- अवनद्ध वाध/चर्म वाध: हुड़का, डौंर, हुड़क, ढोलकी, ढ़ोल, दमाऊँ, नगाड़ा, घतिया नगाड़ा, डफ़ली, डमर।
- सुषिर वाध: मुरुली, जौया मुरुली, भौकर/भंकोरा, तुरही, रणसिंहा, नागफणी, शंख:-, उधर्वमुखी नाद, मशकबीन।
- तांत/तार वाध: सारंगी, एकतारा, दोतारा, गोपीचन्द्र का एकतारा/गोपी यंत्र।
- हारमोनिय
ढ़ौल-दमाऊँ
ढ़ौल सर्वप्रथम नागसंघ ने युद्ध में वीरों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रयोग किया था। ढ़ौल-दमाऊँ साथ-साथ बजाए जाते हैं। यह उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय वाद्य-यंत्रों में से एक है। इसको मांगलिक कार्यों, समूहिक नृत्यों, धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा यात्राओं, लोक उत्सवों और विवाह समारोह में बजाया जाता है। ढ़ोल गले में जनेऊ की भांति दाहिने हाथ से छोटी छड़ी के सहारे बजाया जाता है, जबकि दमाऊँ गले में डालकर दोनों हाथों से नगाड़े की भांति बजाया जाता है।
डौंर-थाली
उत्तराखंड में यह सबसे ज्यादा गढ़वाल व कुमाऊँ क्षेत्रों में देखने को मिलता है। डौंर को शिव यंत्र के नाम से भी जाना जाता है। ढ़ौल की तरह डौंर को छड़ी व हाथ से बजाया जाता है। घुटनों के बीच डमरू को रखकर दाहिने हाथ से छड़ी व बाएँ हाथ की उँगलियों से शब्दोत्पति कर बजाया जाता है। थाली के रूप में अक्सर कांसे से बनी थाली का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग औंछरियों (अप्सराओं) के नृत्य, देवि-देवताओं का मनुष्य में प्रवेश कराने और अलौकिक शक्ति सम्पन्न कराने में अहम भूमिका निभाती है, इस यंत्र के बिना यह कार्य संभव नहीं हो पाता है। इसका प्रचालन आज भी मौजूद हैं।
ढौलकी (ढोलक)
बद्दी जाती के समुदाय द्वारा विशेष रूप से इसका प्रयोग किया जाता है। त्यौहारों के अवसर पर इसका प्रयोग अधिकतर किया जाता है। साधारणतया साल की लकड़ी से तथा इसकी पुड़ियाँ बकरी या काखड़ की खाल से निर्मित की जाती है। लोहे अथवा पीरल के कुंडलों से कसकर ढोलकी को आवश्यकतानुसार सुर दिया जाता है।
हुड़की
हुड़की अत्यंत हल्की व बजाने में सरल वाध है। कुमाऊँ में कत्युरी शासन में छटी शताब्दी के पूर्वार्ध में हुडक्या नायक द्वारा हुड़का बजाने का उल्लेख मिलता है। हुड़की का प्रयोग जागर और अन्य लोकगीतों के अवसर पर ही बजाया जाता है। हुड़की को केवल दायें हाथ से ही बजाया जाता है। इसका प्रयोग उत्तराखंड के स्थानीय देवी-देवताओं व अन्य लोकगीतों के दौरान किया जाता है।
तुर्री और रणसिंघा
यह युद्ध के वाद्य यंत्र हैं, आकार में लंबे पीतल या तांबे के बने होते हैं। युद्ध के अवसरों पर इन वाद्य यंत्रों को बजाने पर सूचना या सावधान रहने का संदेश दिया जाता था। यह मुख की ओर संकरी नाल द्वारा फूँक मारकर इनसे तीव्र कर्कश ध्वनि निकलती है। इसका प्रयोग देवि-देवताओं की पुजा के दौरान किया जात है।
मोछंग
यह लोहे की पतली पट्टियों से निर्मित छोटा सा वाद्य यंत्र है, जिसको होंठों पर टीकाकार एक उंगली से बजाया जाता है। उंगली के संचालन और होंठों के मध्य इसको सुर दिया जाता है।
झाँझ (झझरी)
कांसे की दो प्लेटों से निर्मित यह वाद्य यंत्र दमाऊँ के साथ बजाया जाता है।
अलगोजा
यह रामसोर के नाम से प्रसिद्ध है। दो बांसुरियों के युग्म को एक साथ मुंह मे लेकर बजाया जाता है। खुदेड़ अथवा करुणा प्रधान गीतों को अलगोजे के स्वरों में गाया जाता है।
सारंगी
यह बद्दी या मिरासियों का प्रिय वाद्य है।
नगाड़ा
यह वाद्य यंत्र मुख्यतः प्राचीनकाल में युद्ध जैसे अवसरों पर प्रयोग किया जाता था। इसको मंदिरों में धुयांल नृत्य व गढ़वाल क्षेत्र में सरौं नृत्य के अवसर पर भी नगाड़े का प्रयोग किया जाता है।
तुर्री और रणसिंघा
यह युद्ध के वाद्य यंत्र हैं, आकार में लंबे पीतल या तांबे के बने होते हैं। युद्ध के अवसरों पर इन वाद्य यंत्रों को बजाने पर सूचना या सावधान रहने का संदेश दिया जाता था। यह मुख की ओर संकरी नाल द्वारा फूँक मारकर इनसे तीव्र कर्कश ध्वनि निकलती है। इसका प्रयोग देवि-देवताओं की पुजा के दौरान किया जात है।
मोछंग
यह लोहे की पतली पट्टियों से निर्मित छोटा सा वाद्य यंत्र है, जिसको होंठों पर टीकाकार एक उंगली से बजाया जाता है। उंगली के संचालन और होंठों के मध्य इसको सुर दिया जाता है।
झाँझ (झझरी)
कांसे की दो प्लेटों से निर्मित यह वाद्य यंत्र दमाऊँ के साथ बजाया जाता है।
अलगोजा
यह रामसोर के नाम से प्रसिद्ध है। दो बांसुरियों के युग्म को एक साथ मुंह मे लेकर बजाया जाता है। खुदेड़ अथवा करुणा प्रधान गीतों को अलगोजे के स्वरों में गाया जाता है।
सारंगी
यह बद्दी या मिरासियों का प्रिय वाद्य है।
नगाड़ा
यह वाद्य यंत्र मुख्यतः प्राचीनकाल में युद्ध जैसे अवसरों पर प्रयोग किया जाता था। इसको मंदिरों में धुयांल नृत्य व गढ़वाल क्षेत्र में सरौं नृत्य के अवसर पर भी नगाड़े का प्रयोग किया जाता है।