उत्तराखंड की संस्कृति एक अलग पहचान



उत्तराखंड अपनी संस्कृति और अस्थाओं के समागम से अपनी अलग पहचान बनाता है। उत्तराखंड में स्थानीय तौर पर अलग-अलग संस्कृति का स्वरूप दिखाई देता है। पहनावे की बात हो या फिर घरों की इसमें पहाड़ी संस्कृति की पहचान अहम है, जो उत्तराखंड की संस्कृति की पहचान को दर्शाता है।

उत्तराखंड में लोगों के पहनावे की शुरुआत पहले भेड़ के बालों से ऊन के स्वरूप में बदलकर उससे कपड़े तैयार किए जाते हैं। कृषि और पशुपालन पहले लगभग सभी घरों में होता था क्योंकि उस दौरान इसकी आवश्यकता के अनुसार ही इसका किया गया, लेकिन नयें संसाधनों के इस दौर में अब कृषि व पशुपालन व्यवसाय में भी काफी कमी दिखाई देती है।

उत्तराखंड में यदि किसी भी क्षेत्रों में मकानों की बात की जाय तो उनका स्वरूप लगभग एक ही होता था। मकानों में दरवाजों की जो ऊंचाई होती थी वह आज के मुक़ाबले लगभग4 फिट कम ही होगा। दरअसल इन मकानों की ऊंचाई भी कम ही होती थी। ठंड से बचाने के लिए ऐसे मकानों को बनाया जाता था। पहनावे की बात की जाय तो पहले ऊन का अधिक प्रयोग किया जाता था। इन मकानों का निर्माण पत्थरों से किया जाता था। जिनकी दीवार पर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती थी। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क व अन्य संसाधनों के न होने के कारण पहले पशुओं के बालों से ऊन बनाकर उनसे ही पहनावे के कपड़े तैयार किए जाते हैं। ये कपड़े ठंड से बचाने के लिए काफी मददगार साबित होते हैं।
उत्तराखंड क्षेत्रों में महिलायें अधिकतर खादी धोती व गहने के रूप में नथ का प्रयोग करती है, जो कि आज भी एक पहाड़ी होने की अलग ही पहचान है। पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की महिलायें किसी विशेष समारोह के अंतर्गत गहनों में गले का गुलबंद, चरयो, नाक की नथ, कर्णफूल व कुंडल, पैरों में बीछूए, पायजेब, चरेऊ आदि पहने जाते हैं। पुरुष चूड़ीदार पाजामा व कुर्ता पहनते थे।

आज वर्तमान समय के अनुसार पहनावे व अन्य बदलाव हम किसी भी रीति-रिवाज से अलग ही देख रहे हैं। उत्तराखंड में भी अब नए पहनावे का दौर शुरू हो चुका है। पुराने दौर की कुछ झलकियाँ हमें अपने कुछ लोगों में दिख ही जाती है, लेकिन आधुनिक तकनीकी युग ने काफी कुछ बदल दिया है, जिनमें हमारी संस्कृति भी जरूर पिछड़ती नजर आ रही है।

वर्तमान समय में जिन खादी व ऊन का अधिकतर प्रयोग हमारे बुजुर्ग अपने पहनावे में इस्तेमाल करते थे और जिन उपकरणों से वो कपड़ों व चटाई आदि का निर्माण करते थे वो भी अब हम सिर्फ लोगों की जुबानी सुनते हैं। बहुत सी ऐसी चीजें अब उत्तराखंड की संस्कृति से विलुप्त हो रही हैं जिनको हमने शायद बचपन में देखा होगा लेकिन वर्तमान स्थिति में उन संसाधनों को हम कहीं खो रहे हैं। इस संसाधनों के लिए संघ्रालयों में जीवित रखने के लिए भी आज तक किसी ने कोई प्रयास नहीं किया। 

आधुनिक तकनीकी में कहीं खो गया घराट

हमारे पौराणिक परंपरागत साधन आज के हाइटेक युग में धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खो रहा है। इन्हीं साधनों में से एक घराट भी है। घराटों का आधुनिकीकरण न होने के कारण उनका अस्तित्व विलुप्त होने लगा है। पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं व मँड़ुआ पीसने का एक मात्र साधन था। घराट संचालक अनाज पीसने के बदले उसमें से थोड़ा बहुत पिसा हुआ अनाज लगभग आधा किलो वसूली करता था।

घराट से पीसा हुआ आटा पौष्टिक होता होने के साथ ही पहाड़ की संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है। घराट नदी के एक छोर पर स्थापित किया जाता है। जिसमें नदी के किनारे से लगभग 100 से 150 मीटर लंबी नहरनुमा के द्वारा पानी को एक नालीदार लकड़ी (पनाले) के जरिये जिसकी ऊंचाई से 49 कोण पर स्थापित करके पानी को उससे प्रवाहित किया जाता है। पानी का तीव्र वेग होने के कारण घराट के नीचे एक गोल चक्का होता है, जो पानी के तीव्र गति से घूमने लगता है। वी आकार की एक सिरा बनाया जाता है जिसमें अनाज डाला जाता है ओर उसके नीचे की ओर अनाज निकाल कर पत्थर के गोल चक्के में प्रवाहित होकर अनाज पीसने लगता है।

आधुनिक युग में बिजली से चलाने वाली चकियों के कारण घराट चक्की बन होने के कगार पर आ चुकी है। इस ओर राज्य सरकर द्वारा कोई योगदान व योजना का न होना भी एक कारण है। जिस दौर में लोग घराट पर निर्भर करते थे उस दौरान न तो कोई बिजली से चलाने वाली चक्की थी और न ही डीजल से चलने वाली कोई चक्की दूर-दूर तक दिखाई देती थी। हालांकि घराट तक पहुँचने के लिए लोगों को काफी दूरी का समय तय करना पड़ता था। इसके साथ ही अब नदियों पर बांध व अन्य जल परियोजनाओं के निर्मित होने से नदियों में इतना पानी नहीं बचा कि कहीं घराट चक्कियों का अंश बच सके। 

घराटों से पीसा हुआ अनाज भले ही पौष्टिक हो लेकिन समय कि अत्याधिक्ता की अपेक्षा बिजली से चलने वाली चक्की में समय कम लगता है, इस ओर अब लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित होने लगा है। इसी कारण उत्तराखंड के अनेक पारम्परिक संसाधनों की विलुप्ति तेजी से हो रही है। हमारे अपने साधनों की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो रही है।