बेटी की भावनाओं से जुड़ा "मैती आंदोलन"

मैती आंदोलन के जननायक श्री कल्याण सिंह रावत
उत्तराखंड में पर्यावरण के प्रति अपनी संवेदना और भावनाओं से परिपूर्ण चिपको आन्दोलन के बाद दूसरा आन्दोलन "मैती आंदोलन" के नाम से जाना गया, मैती अथार्त लड़की का मायका। मैती आंदोलन चिपको आन्दोलन से प्रेरित होकर बेटी की शादी के समय उसके यादगार पलों को सँजोये रखने की रीत आज ज़ोरों पर शुरू हो चुकी है।

चिपको आन्दोलन

एक तरफ देश में आजादी का दौर चल रहा था तो दूसरी ओर वनों की सुरक्षा के लिए एक पहल शुरू हो गयी और ये ही पहल बड़ा जन आन्दोलन के रूप में बढ़ाने लगा। सन 1942 भारत छोड़ो आन्दोलन का दौर चल रहा था। पर्वतीय क्षेत्रों में वन भू-भागों की सुरक्षा के लिए नारियों की एक सेना बन चुकी थी। उत्तराखंड के जंगलों से व्यापारिक लाभ के लिए वनों को नुकसान पहुँच रहा था। धीरे-धीरे पर्वतीय भागों में लोग अपने-अपने तरीकों से इस आन्दोलन से जुडने लगे। वर्ष 1970-78 के मध्य सर्वोदयी सहकारी वन समितियाँ "दशौली ग्राम स्वराज संघ" तथा "महिला मंगल दलों" के रूप में चिपको आन्दोलन का उदय हुआ।

इस आन्दोलन ने न केवल वृक्षों के प्रति आवाज उठाई बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए भी लोगों तक एक संदेश दिया। उस समय वनों को काटने के लिए ठेके दिये जाते थे जिसके चलते पेड़ों को काटने की प्रक्रिया तेजी से बढ़ाने लगी और इसको रोकने के लिए महिलाओं ने आन्दोलन के रूप में अपनी आवाज बुलंद की।

वर्ष 1972 में चमोली रेणीग्राम की महिलाओं ने वनों की रक्षा के लिए ग्रामसभा स्तर पर मंगलदलों का गठन किया। इस मंगलदल की प्रथम अध्यक्षा गौरादेवी को चुना गया। अन्य ग्रामवासियों ने भी साथ मिलकर रेणीग्राम की महिलाओं को सहयोग देना शुरू कर दिया और नन्दादेवी अभयारण्य के निकट अनेक गाँवों में जन-सभाएं आयोजित की और सभी ग्रामवासियों ने मिलकर वनों की रक्षा करने का निश्चय किया।

वनों को बचाने के लिए भावनात्मक वातावरण तैयार होने लगा, लोगों के बीच दूर-दूर तक चर्चाओं का दौर शुरू होने लगा। 01 अप्रैल, 1973 को सर्वोदय कार्यकर्ता चंडिप्रसाद भट्ट के मार्गदर्शन में "दशौली ग्राम स्वराज मण्डल" द्वारा 'चिपको आन्दोलन' की नीव राखी गयी। इस आन्दोलन को सफल बनाने की एक बड़ी पहल शुरू हो चुकी थी। लोग अपनी आजीविका-उपार्जन के लिए दूर-दूर से आने लगे थे। इस अभियान में गांधी विचारधारा के लोग अधिक जुड़े थे, जिसके चलते इस आन्दोलन को मजबूती मिली और किसी भी हिंसात्मक स्वरूप का कोई प्रश्न ही नहीं था।

इस आन्दोलन के लोग इतने भावनात्मक रूप से जुड़ गए की उन्होने निर्णय लिया पेड़ों पर चिपककर पेड़ों की रक्षा के लिए किसी भी कुल्हाड़ी के वार को सहने के लिए तैयार हैं। उनके इस साहसिक उपक्रम की प्रणेता गौरादेवी व महिला मंगलदल की अन्य सदस्याएं सम्मिलित रही। 25 मार्च 1974 को वन विभाग द्वारा रेणी गाँव के जंगल में 2451 पेड़ों को काटने की बोली लगी थी। इस दौरान वहाँ ठेकेदार भी अधिक संख्या में पहुँचे।  जब इसकी सूचना आसपास के गाँव में पहुंची तो सभी गाँववासी वहाँ बच्चों संग पहुँचे और विरोध करने लगे। वन विभाग के कर्मचारियों ने जब इतनी संख्या में गाँव के लोगों को देखा तो अचेत रह गए। 

गाँव के लोगों को देखकर वन विभाग के अधिकारी ने चतुराई से गाँव के लोगों को कहा कि सारे गावों के लोगों को जंगल कटान के लिए मुआवजा दिया जाएगा। यह इसलिए कहा गया ताकि किसी तरह गाँव के लोग वह से चले जाये। इसके लिए उन्होने शासन से विचार-विमर्श करने के लिए लोगों को मुख्यालय गोपेश्वर पहुँचने की सूचना पहुंचा दी इस तरह लोगों को गुमराह करके किसी तरह चोरी-छिपकर वहाँ ठेकेदारों के मजदूरों ने ऋषिगंगा के किनारे वनों पर कटान शुरू कर दिया। यह सूचना जब गाँव के लोगों तक पहुंची तो सभी महिलाएं एक स्थान पर इकट्ठी हो गयी। महिलाओं में क्रोध की ज्वाला दिखने लगी। उन्होने मजदूरों के पास पहुँचकर आदर के साथ उनसे विनती की "भाइयों यह जंगल आपका और हमारा ही है। इससे हमें जीवन मिलता है, यदि आप जंगल काट देंगे तो भूमि का कटान होगा और खेत बह जाएंगे।" इस पर मजदूरों ने कहा कि हम तो ठेकेदार के नौकर हैं और इस विषय पर आप ठेकेदार से ही बात करें।

महिला मंगलदल की सदस्यों ने ठेकेदार को बुलाकर कहा कि हम हर हालत में इन वनों को नहीं काटने देंगे चाहे कुछ भी हो जाए। महिलाओं ने कहा कि इस वक़्त पुरुष हमारे साथ नहीं हैं

और उनके गोपेश्वर से लौटने के बाद इस समस्या का हल निकाला जाएगा। महिलाओं की बात सुनकर ठेकेदार व वन विभाग के कर्मचारी गुस्से से आग बबूला हो गए और उनको जेल भेजने की धमकी देने लगे। हालात बिगड़ते देर न लगी और महिलाओं ने वही अपना आन्दोलन शुरू कर अपनी आवाज बुलंद कर दी। इस बीच ठेकेदार के लोगों ने बन्दूक महिलाओं की ओर तान दी, इस बीच गौरा देवी ने चिलाते हुए कहा कि चलाओं गोली, मार डालो ... ।

महिलाओं का यह रूप देखकर ठेकेदार के आदमियों और वन विभाग के कर्मचारियों ने जैसे ही मजदूरों को पेड़ों को काटने का आदेश दिया वैसे ही महिलाएं पेड़ों पर लिपट गयी और कहा इनके साथ हमें भी काट डालो। जंगल में युद्ध जैसा माहौल बन गया। अंततः महिलाओं के इस साहसिक शक्ति की विजय हुई और वृक्षों को काटने से बचाया गया, इस आन्दोलन की मुख्या रही गौरीदेवी का प्रयास सफल हुआ। इस घटना से शासन के को मजबूर होकर एक समिति का गठन करना पड़ा जिसके तहत वनों के दायरे को सीमित बनाकर उनको कोई नुकसान न पहुंचाया जा सके और वनों को नुकसान पहुँचने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जा सके। आज इस आन्दोलन से उत्तराखंड के कई गाँव में वनों को लेकर जागरूकता फैल चुकी है और वनों को बचाने के लिए समितियाँ व मंगलदलों का गठन किया गया है।

इस आन्दोलन की प्रमुख अध्यक्षता रही गौरा देवी का जन्म जोशीमठ (चमोली) की धौली घाटी में तपोवन स्थित लाता गाँव के एक भोटिया परिवार में सन 1925 को हुआ। 11 वर्ष की आयु में इनका विवाह हुआ और 22 वर्ष की उम्र में इनके पति का देहांत हो गया।