चाँदपुर मुल्क

चाँदपुरगढ़ी महल के अंश
चाँदपुर मुल्क चमोली जिले के अन्तर्गत आने वाले गाँव आदिबदरी, तोप, कांसुआ, आली-मज्याड़ी, नौना, हरगाँव, देवालकोट, माथर, मलेठी, बेनोली, ऐरोली, डुंग्री, शैलेश्वर, कफलोड़ी, तोली व अन्य प्रमुख गाँव हैं। कर्णप्रयाग से एक आदिबद्री-गैरसैण मोटरमार्ग जो गैरसैण व कुमाऊँ मण्डल को जोड़ता है तो आदिबद्री से वही मोटर मार्ग देवलकोट को भी जोड़ता है और वहीं से नौटी होते हुए कर्णप्रयाग वापस पहुंचा जा सकता है, तो कर्णप्रयाग से इडाबधाणी, जाख, नौटी, बेनोली, देवलकोट होते हुए गैरसेंण या फिर आदिबद्री होते हुए कर्णप्रयाग पहुँचा जा सकता है। इस मुल्क को खासतौर पर नन्दा देवी राजजात यात्रा के प्रारम्भ पड़ावों के लिए जाना जाता है।

कर्णप्रयाग से गैरसेंण की दूरी लगभग 37 किमी0 के करीब है। यदि मोटर मार्ग की स्थिति समझें तो पहले से थोड़ा सुधार है, परंतु पर्वतीय क्षेत्र होने की वजह से बरसात में इन मार्गों पर भूस्खलन की परिस्थिति बनी रहती है। आदिबद्री में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप माना जाता है इसके साथ ही यहाँ पर 888 ई0 के समय में राजा कनकपाल और उनके बाद अजयपाल का महल था जो अब केवल एक धरातलीय ढांचे के रूप में यादगार के तौर पर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इसी क्षेत्र में कांसुआ गाँव है जहां से नन्दा देवी राज जात यात्रा की भव्य शुरुआत होती है। तो दूसरी ओर प्रसिद्ध गाँव नौटी जहाँ नन्दा देवी का मंदिर भी स्थित है।

जन सुविधाओं के आधार पर इन क्षेत्रों में लोग अधिकतर खेती पर निर्भर होने के साथ ही अन्य कामों के जरिये अपनी आमदनी कमाते हैं, जबकि कई लोग रोजगार की तलाश में गाँव से शहर में निर्भर हो गए हैं। इसके साथ ही वर्तमान में नन्दासैण में आईटीआई कॉलेज व अन्य संस्थान भी खुल जाने के कारण लोगों को पहले से ज्यादा सुविधा मिल रही है।

आदिबद्री में सबसे प्रसिद्ध मेला नौठा कौथिग, शैलेश्वर मंदिर मेला जिसकी अवधि अब एक से ज्यादा दिन होने के साथ ही स्थानीय गाँव के लोगों द्वारा संगीत का भव्य आयोजन होता है। नन्दासैण में पर्यावरण संवर्द्धन मेला जो कि नवम्बर में करीब एक सप्ताह तक लगता है। यहीं से कफलोड़ी-पुनगाँव होते हुए बिरोंखाल (पौड़ी) के लिए भी एक मार्ग जाता है, हालांकि इस मार्ग पर बहुत कम वाहनों की आवाजही होती है। आए दिनों नन्दासैण में व्यापारिक बाजार के रूप में धीरे-धीरे विकसित होने लगा है, जो कि पहले कम ही रही।

उत्तराखंड की झाँसी की रानी तीलू रौंतेली

हम जब भी पहाड़ी नारी की वीरता व उसकी शक्ति का अवलोकन जब भी करते हैं तो उसमें पहाड़ की झाँसी की रानी के नाम से जाने जानी तीलू रौंतेली की वीरगाथा उत्तराखंड के इतिहास में अमर हो गयी। सत्रह शताब्दी में गुराड़ गाँव, परगना चौंदकोट गढ़वाल में जन्मी शौर्य व साहस की धनी इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में आज भी याद किया जाता है। तीलू रौंतेली 15 वर्ष की आयु से ही अपनी वीरता व साहस के लिए जाने जानी लगी, उन्होने अपनी अल्प आयु में ही सात युद्ध लड़कर विश्व की एकमात्र वीरांगना है।

तीलू रौंतेली थोकदार वीर पुरुष भूप सिंह गोर्ला की पुत्री थी। 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह ईडा गाँव के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ तय हो गयी थी। कुछ दिनों बाद उनके मंगेतर, पिता व दो भाइयों के युद्धभूमि  में प्राण न्यौछावर हो गए थे। उनके इसी प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को युद्ध भूमि में लड़ने के लिए विवश कर दिया। शास्त्रों से सम्पूर्ण सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और दो सहेलियों बेल्लू और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए कूच किया।

उनके इस साहस की चर्चा दूर-दूर के गाँव में होने लगी सबसे पहले उन्होने खैरागढ़ (कालागढ़ के समीप) को कत्यूरियों से मुक्त कर उमटागढ़ी पर आक्रमण किया फिर अपने सैन्य दल को लेकर वह सल्ट महादेव पहुँची, जहां उन्होने अपने शत्रु दल को खदेड़ा। इस विजयी के उपरांत तीलू भिलण भौन की ओर चल पड़ी। तीलू की दोनों सहेलियों ने इसी युद्ध में वीरगति प्राप्त की।

चौखुटिया तक अपने गढ़ राज्य का विस्तार करने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट पहुँची। इसी बीच कलिंगा खाल में उसका शत्रु से युद्ध हुआ। वीरोंखाल के युद्ध में तीलू के मामा रामू भंडारी तथा सराईंखेत के युद्ध में उसके पिता भूप सिंह गोर्ला युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में कत्युरी सैनिकों का सामना कर शत्रु को पराजित कर अपने पिता का बदला लिया। यहीं पर उसकी प्रिय घोड़ी बिंदुली भी शत्रु दल का निशाना बनी। तल्ला काँड़ा शिविर के समीप पूर्वी नयार नदी में स्नान करते रामू रजवार नामक एक कत्युरी सैनिक ने धोखे से तीलू रौंतेली पर तलवार से हमला कर उसकी जान ले ली।

आज भी हम उत्तराखंड की इस वीरांगना नारी की वीरता की कहानी उत्तराखंड के लोकगीतों में सुनते आए हैं। उनके ऊपर अनेकों गीतों से उनके जीवन को सँवारा गया है और उनकी वीरता व साहस का परिचय उनके नाम से ही जाना जाने लगा। उत्तराखंड में यह पहली एक ऐसी नारी थी, जिसने युद्धभूमि में कूदकर अपने शत्रुओं को पराजित कर इतिहास अपने नाम किया। उनके इस अदम्य साहस का परिचय उनकी इस ऐतिहासिक गाथा के साथ हमेशा अमर रही और रहेगी।

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक श्री नरेंद्र नेगी जी द्वारा भी उत्तराखंड की नारियों की वीरता व साहस को दर्शाता यह गीत आज भी लोग कई वीरगाथाओं को गीतों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं, ऐसा ही इस गीत के कुछ अंश हैं:-

पति व्रता नारी एख, बांध कीसाण छीन, बांध कीसाण छीन
तीलू रौतेली एख, रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन
रामी बौराण छीन, रामी बौराण छीन हो….कथगा रौंतेली स्वाणी चा, हा …कथगा रौंतेली स्वाणी चा 
भांडू का पवड़ा सुणा, बीरू का देखा गढ़
नरसिंह, नागराजा, पंडों का देखा रण
तुम ते लाकुड, दमो, ढोलकी.. धै लगे की, भटियाणी च,
कथगा रौंतेली स्वाणी चा
धरती हमरा गढ़वाल की, धरती हमरा गढ़वाल की, कथगा रौंतेली स्वाणी चा,

हरिद्वार

उत्तराखण्ड प्रकृतिक सौन्दर्य की अनुभूति व सुखद वातावरण के साथ ही आस्था का विशेष केंद्र भी है। चार धाम यात्रा के लिए सर्वप्रथम हरिद्वार से प्रारम्भ होती है। धार्मिक स्थलों में हरिद्वार का विशेष महत्व इसलिए भी है, क्योंकि यहाँ कुम्भ यात्रा व पावन गंगा का प्राचीनतम नगरों में से एक है। शिवालिक पहाड़ियों के तलहटी में गंगा से निकलकर आती हुई पावन गंगा के रूप में अवतरित होती हुई बंगाल की खाड़ी में मिलती है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के पूर्वज, कपिल मुनि के श्राप से ग्रसित होकर भस्म हो गए थे, जिसके बाद राजा भागीरथ ने कठोर तपस्या करके स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाये और अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इसी के चलते हरिद्वार का अन्य प्राचीन नाम कपिल स्थान भी है। हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक स्थान होने के साथ ही पर्यटक स्थलों के रूप में भी जाना जाता है।

दार्शनिक स्थल:
हरकी पौड़ी
यह हरिद्वार का सबसे प्रमुख घाट है। यहाँ प्रत्येक दिन लोग हजारों की संख्या में आते हैं। इस घाट पर पुजारीयों के साथ ही अन्य संस्कारों की पुजा की जाती है। मंदिर स्थल पूरी तरह से अनेक प्राचीन कलाकृतियों व मूर्तियों से सुसज्जित है। यात्रियों द्वारा यहाँ पर स्नान, पुजा, फूल चढ़ावा आदि किया जाता है, जबकि प्रतिदिन सुबह-शाम यहाँ पर गंगा जी की विशेष आरती की जाती है, जिसमें भक्तों के साथ ही हजारों दीप जगमगाते नजर आते हैं। यह भव्य स्वरूप जब गंगा की लहरों में तैरते दीपक लहराते नजर आते हैं तो सम्पूर्ण वातावरण भक्ति भाव में डूब जाते हैं, शंख ध्वनि के साथ ही हजारों भक्तों द्वारा आरती का गान किया जाता है।

मनसा देवी मंदिर
हरकी पौड़ी से लगभग 2 किमी0 की दूरी पर यह मंदिर बिलवा पर्वत पर स्थित है। मंदिर तक पहुँचने के लिए यात्री पैदल व रोपवे का स्तेमाल करते हैं। 

ब्यूटी पॉइंट
मनसा देवी मंदिर मार्ग से करीब दो किमी0 की दूरी पर यह स्थल स्थित है। यहाँ से हरिद्वार का पूरा मनमोहक दृश्य देखा जा सकता है। हरिद्वार की मैदानी भागों में फैली जलधाराओं, नदियों के ऊपर बने बैराजपुल व प्राकृतिक का सम्पूर्ण आनंद लिया जाता है।

चंडीदेवी मंदिर
गंगा के एक ओर जहां मनसा देवी का मंदिर है तो वहीं दूसरी ओर माँ चंडी देवी का मंदिर नील पर्वत पर स्थित है। कहा जाता है कि कश्मीर के राजा सुचात सिंह 1929 ई0 में बनाया था। चंडी मंदिर तक पहुँचने के लिए छोटी गाड़ियों व घोड़ों से पहुंचा जा सकता है। मंदिर में निलेश्वर, अंजनी देवी व अन्य देवी देवताओं के भक्तिभावपूर्ण दर्शन किए जा सकते हैं।

भीमगोड़ा सरोवर
यह सरोवर हरिद्वार में एतिहासिक गाथाओं का एक केंद्र रहा है। गाथा है कि जब पाँचों पांडव इसी राह से हिमालय की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो उन्होने यहाँ कुछ समय विश्राम किया। इसके साथ ही यहाँ भीम ने अपने घुटने की शक्ति से इस सरोवर का निर्माण किया था। इस सरोवर में स्नान करने से धार्मिक दृष्टि से पुण्यकारी माना जाता है।

सप्तऋषि
हरिद्वार में गंगा विशाल स्वरूप एक छोटी-छोटी धाराओं में विभाजित होकर अन्य भू-भागों में बहती है। इन्ही धाराओं में से एक सप्त सरोवर भी विशेष है।

दक्ष महादेव मंदिर व सतीकुंड (कनखल)
हरिद्वार से करीब 5 किमी0 की दूरी पर स्थित कनखल नामक स्थल पर यह पौराणिक स्थान है। हरिद्वार में इस स्थल का विशेष महत्व रहा है। कहा जाता है कि यह वहीं स्थल है जहां भगवान शिव रुष्ट होकर तांडव नृत्य किया था।

भारत माता मंदिर
भारत माता मंदिर सात मंज़िला भवन के रूप में है। इस मंदिर के निर्माण में शिल्प-मूर्तियों का बेजोड़ नमूना है। खास बात यह है कि इस मंदिर में देवी-देवताओं, ऋषि मुनियों के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित है।

खास बात
हरिद्वार हर बारहवें वर्ष पूर्ण कुम्भ मेला व हर छठे वर्ष अर्द्धकुम्भ मेला का आयोजन होता है।

हरिद्वार तक पहुँचने के लिए यात्रा मार्ग
वायुमार्ग: हरिद्वार से करीब 45 किमी0 की दूरी पर राष्ट्रीय हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग: हरिद्वार में देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है। यहाँ से दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, चंडीगढ़, वाराणसी, कलकत्ता, उज्जैन, जोधपुर व देहारादून इत्यादि।
सड़क मार्ग: हरिद्वार सड़क मार्ग देश के कई नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, जयपुर, जोधपुर, आगरा, शिमला, चंडीगढ़, लखनऊ, मुरादाबाद, मथुरा, अलीगढ़ सीधी बस सेवाएँ हैं। यहाँ से मसूरी, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि के लिए टैक्सी की भी सुविधाएं उपलब्ध है।

ऋषिकेश

चन्द्रभागा नदी व हरिद्वार से करीब 24 किमी0 की दूरी पर स्थित चार-धाम यात्रा का दूसरा मुख्य पड़ाव ऋषिकेश है। धार्मिक व आध्यात्मिक के लिए ऋषिकेश प्रसिद्ध है। ऋषिकेश का पौराणिक नाम कुब्जाम्रक माना जाता है। इस नाम के आधार पर एक पौराणिक कथा यह है कि केदारखण्ड के अनुसार मुनिरैभ्य ने आम के पेड़ का आश्रय लेकर कुब्जा रूप में भगवान के दर्शन किए थे, जिसके कारण इसका नाम कुब्जाम्रक पड़ा। यहाँ पर हजारों विदेशी पर्यटक आते हैं। इसके साथ ही यहाँ रफ्टिंग, पर्वतारोहण अभ्यास, जलक्रीडा व वन्य अभ्यारण आदि का लुप्त उठाया जाता है।

दार्शनिक स्थल
लक्ष्मण झूला
लक्ष्मण झूला का निर्माण सन 1939 में गंगा के 150 मी0 की ऊँचाई पर बनाया गया। इस झूला पुल को पार करके स्वर्गाश्रम पहुंचा जाता है।

रामझूला
रामझूला को पहले शिवानंद झूला कहा जाता था। यह झूला स्वर्गाश्रम, शिवानंद आश्रम व स्वर्गाश्रम के मध्य नदी पर स्थित है।

त्रिवेणी घाट
यहाँ भरत मंदिर के पास कुब्जाभ्रक नामक घाट है। तीन स्त्रोतों से पानी आकर मिलता है। इस घाट पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं के काफी संख्या में भीड़ मौजूद रहती है। त्रिवेणी घाट के दक्षिण में श्री रघुनाथ मंदिर है। इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले यहाँ पर स्थित कुण्ड में पितरों का तर्पण किया जाता है।

स्वर्गाश्रम
यहा पर अनेकों आश्रमों व मंदिरों की अत्यधिक संख्या है। यहाँ पर सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विस्थापित है।

नीलकंठ
ऋषिकेश से लगभग 12 किमी0 की दूरी पर स्थित है। नीलकंठ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ शिव ने समुद्र मंथन में निकले विष को यहीं ग्रहण किया था, जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया था। यह मंदिर 1700 मीटर की ऊँचाई पर वन क्षेत्र में स्थित है।

भरत मंदिर
ऋषिकेश में सबसे प्राचीन भरत मंदिर स्थित है। यहाँ राम-लक्ष्मण व शत्रुघन के मंदिर प्रसिद्ध व दर्शनीय है।

ऋषिकेश तक पहुँचने का मार्ग
वायुमार्ग यहाँ से 20 किमी0 दूर जौली ग्रांट हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग सभी नगरों से रेल सुविधा उपलब्ध नहीं है।
सड़क मार्ग यहाँ पहुँचने के लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, आगरा, नैनीताल, चार धाम के लिए विशेष गाडियाँ व टैक्सी की अन्य सुविधाएं उपलब्ध है।

यमुनोत्री

यमुनोत्री चारधाम यात्रा का प्रमुख स्थल माना जाता है। यमुना नदी के उद्गम क्षेत्र में यह तीर्थ स्थल निकटवर्ती बस स्टॉप हनुमानचट्टी से 14 किमी0 की पैदल यात्रा यात्रा करनी पड़ती है। इन पैदल मार्गों में प्रकृति के मनभावन स्वरूप को देखकर तीर्थ यात्री अपनी थकान भूलकर प्रकृति का आनंद लेते हैं। यमुना का मंदिर आपदा के कारण कई बार क्षतिग्रस्त हुआ है, जिसके बाद कई बार इसका निर्माण भी हुआ है। यह प्राचीन मंदिर टिहरी नरेश महाराजा प्रतापशाह ने संवत 1919 में बनवाया था। प्राकृतिक आपदा के बाद यह मंदिर कलकत्ता के सेठ जालान के सहयोग से बना। शीतकाल में अत्यधिक ठंड पड़ने से यहाँ बर्फ गिरानी शुरू हो जाती है, जिसके कारण यमुनोत्री धाम के कपाट बंद कर दिये जाते हैं और ग्रीष्मकाल में प्रतिवर्ष बशाख शुक्ल की तृतीया को खोले जाते हैं। सप्तऋषि कुण्ड से करीब 6 किमी0  की दूरी पर खरसाली गाँव है, जहां सोमेश्वर देवालय है। गंगोत्री मंदिर में खरसाली गाँव के पंडित पुजा-अर्जना का कार्य करते हैं। 

दर्शनीय स्थल
गर्म जल कुंड
मंदिर के पास पहाड़ी चट्टान के अंदर से गर्म पानी का फव्हरा निकलता रहता है। इस कुंड में यात्रीगण कपड़े की पोटी में चावल और आलू बांधकर रखते हैं व कुछ समय बाद यह पककर तैयार हो जाता है। इस कुंड का नाम सूर्य कुंड है।

सप्तऋषि कुंड
यह हिमानी झील यमुनोत्री से 10 किमी दूर है। यहाँ तक पहुँचने का मार्ग काफी दुर्गम है। यह स्थल यमुना नदी का वास्तविक उदगम स्थल है। इस झील में ग्लेशियर जमा होता रहता है और पानी का पूरा रंग नीला है। झील के आसपास ब्रह्मकमल के पुष्प खिले रहते है।

यमुनोत्री गाथा
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवी यमुना और यम (मृत्यु देवता) भगवान सूर्य एवं संज्ञा (जागरूकता की देवी) से दो संताने थी। ऐसी धारणा है की संज्ञा, सूर्य की भीषण गर्मी को सहन नहीं कर पा रही थी, तत्पश्चात यम ने छाया नाम का पुतला बनाकर उसको जगह दे दी। एक दिन यम ने छाया को अपने पैर से मरने की कोशिश की तो क्रोधित छाया ने यम को अभिशाप दिया कि तुम्हारा पैर एक दिन गिर जाएगा। यमुना जब पृथ्वी पर आई तो उसने अपने भाई को छाया के अभिशाप से मुक्त करने के लिए घोर तपस्या की। यम इससे बहुत प्रसन्न हुआ और यमुना को वरदान भी दे दिया। यमुना ने अपने भाई यम से वरदान के रूप में नदियों के सुरक्षित जल की मांग की, जिससे किसी की पानी पीने के अभाव के कारण मृत्यु न हो व मोक्ष की प्राप्ति हो इसलिए यमुनोत्री धाम उद्गम स्थिल के निकट स्थित पर्वत का नाम भगवान सूर्य, जिन्हें कलिंदा भी कहते हैं।

यमुनोत्री तक पहुँचने का मार्ग
वायुमार्ग समीपवर्ती हवाई अड्डा जौलीग्रांट जो कि ऋषिकेश से 18 किमी दूर है।
रेल मार्ग निकतम रेलवे स्टेशन 219 किमी0 दूर ऋषिकेश।
सड़क मार्ग यमुनोत्री से 14 किमी0 पहले हनुमानचट्टी तक ही बस सेवा उपलब्ध है। फिर वहाँ पैदल मार्ग से ही आगे का रास्ता तय करना होता है। ऋषिकेश, देहरादून, विकासनगर, मसूरी, उत्तरकाशी, गंगोत्री तथा बड़कोट से नियमित टैक्सी व बस सेवाएँ हनुमानचट्टी तक ही उपलब्ध है।

गंगोत्री

यह तीर्थ स्थल प्राकृतिक सौन्दर्य व हिमालय की पवित्रता के कारण मोहित करता है। गंगा नदी के उद्गम क्षेत्र में बसा यह प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। चार धाम यात्रा में गंगोत्री धाम का विशेष महत्व है। इस स्थल तक अब मोटर मार्ग बन जाने से यात्रा काफी सुगम हो गई है। तीर्थ यात्रियों के साथ ही वर्तमान समय में यहाँ पर्वतारोही व पर्यटक भी भरी संख्या में पहुँचते हैं। ऋषिकेश से करीब 255 किमी0 की दूरी पर इस मंदिर के कपाट अप्रैल माह में अक्षय तृतीया को खोला जाता है। माँ गंगा की डोली मुखवा गाँव के मार्कन्डेय मंदिर से शुरू होकर गंगोत्री धाम से लिए प्रस्थान होती है।

गंगा का मुख्य उदगम स्थल यहाँ से 18 किमी0 दूर गोमुख स्थित है। 18 किमी0 की यह यात्रा पैदल तय करनी पड़ती है, लेकिन कई यात्री इस स्थल तक भी जाते हैं। उत्तरकाशी जनपद में स्थित गंगोत्री धाम समुद्र तल से 9,980 (3,140 मी0) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत्री धाम में भागीरथी का मंदिर है, जिसमें गंगा, लक्ष्मी, पार्वती व अन्नपूर्णा की मूर्तियाँ स्थापित है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी नदी के नाम से जाना जाता है। 

दर्शनीय स्थल
भागीरथी जल प्रभात
गंगा नदी को यहाँ भागीरथी के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर जलधारा एक बड़े झरने के रूप में गिरती है।

भागीरथ शिला
मंदिर के पास भागीरथ शीला है। यहाँ पर स्नान व धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। यहा से आगे चलकर केदारताल से आने वाली केदारगंगा, भागीरथी नदी में मिल जाती है।

पटांगणा
गंगोत्री धाम से डेढ़ किमी0 आगे देवदार व अन्य के सघन वन है। गंगा नदी यहाँ संकरी घाटी में से होकर बहती है।

जलमग्न शिवलिंग
यह भगीरथी नदी में डूबा प्राकृतिक शिवलिंग शिला है। पानी का जल स्तर जब कम होता है तो तब यह शिवलिंग दिखाई देता है।

गंगोत्री गाथा
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भारतवर्ष के राजा महाराज सागर का राज था। महाराज सागर के पुत्र अत्यंत अहंकारी थे। अपने अहंकार के कारण एक दिन उन्होने एक महर्षि का अपमान कर दिया, जिससे क्रोधित महर्षि ने उन्हें भष्म कर दिया व उनकी आत्मा मोक्ष से वंचित रह गयी। महाराज की कई बार विनती करने के पश्चात महर्षि ने उन्हे कहा कि शाप तो वापस नहीं लिया जा सकता है, लेकिन उपाय किया जा सकता है। उन्होने महाराज को बताया कि यदि स्वर्ग से दिव्य नदी गंगा को धरती पर लाया जाये तो उनके पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इसके बाद उन्होने अपनी कड़ी तपस्या के बाद दिव्य गंगा माँ को धरती पर ले आए। गंगा के प्रचंड स्वरूप के कारण विनाश से धरती को बचाने के लिए भगवान शिव ने गंगा को पहले अपनी जटा में धरण कर फिर धरती की ओर प्रवाहित किया।

गंगोत्री तक पहुँचने का मार्ग
गंगोत्री तक पहुँचने के लिए मोटर मार्ग एक मात्र व उत्तम साधन है। गंगोत्री तक सीधी बस सेवा उपलब्ध है। ऋषिकेश, देहरादून, हरिद्वार, टिहरी, श्रीनगर, पौड़ी, उत्तरकाशी आदि स्थानों से त्वरित बस सेवा के साथ ही टैक्सी की सुविधा भी उपलब्ध है।