कल्याणकारी माँ धारी देवी की पौराणिक गाथा

माँ धारी देवी मंदिर श्रीकोट, श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल) से करीब 15 किमी0 की दूर कलियासौड़ मार्ग व रुद्रप्रयाग से करीब 26 किमी0 की दूरी पर स्थित है। यह मार्ग प्राकृतिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। बरसात के दौरान यहाँ भूस्खलन की स्थिति बनी रहती है, लेकिन इस मार्ग को काफी हद तक सीमित व नियंत्रित किया जाता रहता है।

माँ धारी देवी प्रतिमां
धारी देवी "धार" शब्द से ही निकलता है। यह स्थल अलकनन्दा नदी के समीप बसा हुआ है। मंदिर में स्थित पुजारियों के अनुसार यह गाथा है कि एक रात जब भारी बारिश के चलते नदी में जल बहाव तेज था। धारी गाँव के समीप एक स्त्री की बहुत तेज ध्वनि सुनाई दी जिससे गाँव के लोग सहज गए। जब गाँव के लोगों ने उस स्थान के समीप जाकर देखा तो वहाँ पानी में तैरती हुई एक मूर्ति दिखाई दी। किसी तरह पानी से वो मूर्ति निकालकर ग्रामीणों ने निकली तो उसी दौरान देवी आवाज ने उन्हें मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित करने के आदेश दिये, धारी गाँव के लोगों ने इस स्थल को धारी देवी का नाम दिया।

मंदिर में माँ धारी की पूजा-अर्चना धारी गाँव के पंडितों द्वारा किया जाता है। यहाँ के तीन भाई पंडितों द्वारा चार-चार माह पूजा अर्चना की जाती है। पुजारियों के अनुसार मंदिर में माँ काली की प्रतिमां द्वापर युग से ही स्थापित है। कालीमठ एवं कालीस्य मठों में माँ काली की प्रतिमां क्रोध मुद्रा में है, परन्तु धारी देवी मंदिर में काली की प्रतिमां शांत मुद्रा में स्थित है। मंदिर में स्थित प्रतिमाएँ साक्षात व जाग्रत के साथ ही पौराणिककाल से ही विधमान है।

पौराणिक धारी देवी मंदिर
जनश्रुति के अनुसार मंदिर में स्थित माँ काली प्रतिदिन तीन रूपों में परिवर्तित होती है। प्रातः कन्या, दोपहर में युवती व सायंकाल में वृद्धा रूप धारण करती है। मंदिर में प्रतिवर्ष चैत्र व शारदीय नवरात्रा में हजारों श्रद्धालु अपनी मनौतियों के लिए दूर-दूर से पहुँचते हैं। मंदिर में सबसे ज्यादा नवविवाहित जोड़े अपनी मनोकामना हेतु माँ का आशीर्वाद लेने पहुँचते हैं। माँ धारी देवी जनकल्याणकारी होने के साथ ही दक्षिणी काली माँ भी कहा जाता है।

माँ धारी देवी मंदिर का इतिहास पौराणिक होने के साथ ही रौचक भी है। वर्ष 1807 से ही मंदिर में अनेकों प्राचीन अवशेष हैं, जो इसके साक्ष्य को प्रमाणित करती है। हालंकि 1807 से पहले बाढ़ के दौरान कुछ साक्ष्य नष्ट हो गए थे। बताया जाता है कि जब शंकराचार्य जी इस मार्ग से ज्योतिर्लिंग की स्थापना हेतु जोशिमठ जाते समय रात्री विश्राम श्रीनगर में किया। इस दौरान अचानक उनकी तबीयत बहुत खराब हो गयी थी, तत्पश्चात उन्होने माँ धारी देवी की आराधना की, जिसके कुछ समय बाद ही उनकी तबीयत में अचानक सुधार देख शंकराचार्य ने माँ धारी देवी की आराधना शुरू की।

नवनिर्मित धारी देवी मंदिर
वर्ष 1985 में श्रीनगर जल-विधुत परियोजना की स्वीकृति के पश्चात इस स्थान को भी डेम के अंतर्गत शामिल किया गया, जिसके बाद से ही स्थानीय लोगों द्वारा मंदिर को बचाने के हर एक प्रयास किए गए। आंदोलन के साथ ही राज्य, केंद्र सरकार व राष्ट्रपति को भी ज्ञापन भेजा गया, परन्तु किसी को भी आस्था के इस केंद्र को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। आंदोलन में साधु-संतों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों सहित उत्तराखंड के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया।

इस जल विधुत परियोजना की ऊंचाई 63 मीटर करने की योजना है। माँ धारी देवी भी इसी परियोजना की चपेट में रहा था, जिसके कारण परियोजना समिति द्वारा मंदिर को उक्त स्थल से हटाने का निर्णय लिया गया और मंदिर के उक्त स्थल से ही उसी के बराबरी में ऊंचा उठाया गया व नवनिर्माण मंदिर की स्थापना की गयी। वर्तमान में मंदिर का भाग नदी के ऊपरी सतह से काफी ऊंचा उठाया गया है।

16 जून, 2013 को जब माँ धारी देवी की प्रतिमां को उनके विस्थापित स्थान से हटाया गया। जिस दिन माँ की मूर्ति को उनके मूल स्थान से हटाया जा रहा था तो उसके कुछ समय पश्चात ही उत्तराखंड के चारों धामों में तबाही मच गयी, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान केदारनाथ में हुआ, तबाही से चारों ओर मौत का सैलाब नजर आ रहा था। इस समायावधि व दिन को संयोग के साथ ही संजोग कहें, इसको लेकर स्थानीय लोगों के साथ ही कई अन्य लोगों ने इसे माँ धारी की मूर्ति को हटाने को लेकर माँ धारी के प्रकोप से यह विनाश हुआ ऐसा माना जाता रहा है।

नारी शक्ति की प्रेरणा है ममता रावत

ममता रावत अपने परिवार के साथ (दायीं ओर)
ममता रावत वह सख्सियत है, जो अपने साहस के लिए जानी जाती है। लोगों की मदद हो या पर्वतों के कठिन राहों को आसानी से पार करना यह उसका परिचय बताता है। आज उनका नाम उत्तराखंड के इतिहास के साथ ही पूरे देश को उन पर गर्व है। ममता का बचपन कठिनाइयों व चुनौतियों से भरा रहा, संघर्ष जीवन के दौर ने उनको काफी हद तक इस तरह कठोर बना दिया था।

ममता का जन्म उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के अंतर्गत ग्राम बंकोली में हुआ। बचपन में ही उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया, पारिवारिक आर्थिक कमजोरी के कारण उनके ऊपर अतिरिक्त जिम्मेदारियों का दबाव पड़ गया। बचपन में माँ की बीमारी के चलते अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दी। कुछ समय पश्चात उन्होने  स्थानीय नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में पर्वतारोही का बसिक प्रशिक्षण लिया।

ममता प्रशिक्षण के साथ ही अपने परिवार की जिम्मेदारियों को भी भली-भाँति निभाती रही, लेकिन राज्य सरकार की ओर से उनको कोई आर्थिक मदद नहीं मिली, लेकिन उनके साहस की चर्चा आज सभी करते हैं, उत्तरकाशी के साथ ही उनको आज पूरा देश सलाम करता है, आइये जानते हैं उनके साहस की कुछ बातें:

ममता रावत
16 जून, 2013 की वो भयानक रात शायद ही कोई भूल पाएगा जब पूरा उत्तराखण्ड प्रकृति के प्रकोप से कराह रहा था। हजारों घर-परिवार काल के इस प्रकोप में लीन हो गए, प्रकृति के इस प्रकोप से लोग इतने लाचार थे कि अपने बचाव के लिए कुछ सोच पाना भी मुश्किल हो रहा था। गाँव-परिवार उजाड़ गए, लोग डरे और सहमें हुए थे। कोई भी भूलकर मदद के लिए साहस दिखाना शायद ही किसी के लिए सामान्य होता।

चारों ओर तबाही ही तबाही थी, प्रकृति का कहर इस कदर टूटा कि कोई भी इससे वंचित न रहा। इसी तबाही में ममता ने भी अपना घर बर्बाद होते देखा लेकिन कहते हैं कि हौंसला सभी जगह काम आते हैं ममता इसकी एक मिशल है। उन्होने प्रकृति के इस प्रकोप को अपनी नियति बना देने के बजाय लोगों को इस त्रादसी में लोगों की मदद के लिए अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना आगे बढ़ी।

जब द्यारा में 30 बछों के एक ग्रुप को एडवेंचर कैंप द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इस दौरान अचानक बढ़ का जलस्तर बढ़ने के साथ ही तेज बहाव के कारण रास्ते टूट गए और पल भी बह गया था। ममता अकेले ही इन बच्चों की मदद के लिए आगे बढ़ी। इस दौरान उन्होने अकेले ही वहाँ से बच्चों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया और फिर उसी स्थान पर लोगों की मदद के लिए निकल पड़ी। इस दौरान वहाँ बाढ़ में फँसकर बेहोश हुई एक बुजुर्ग महिला को अपनी पीठ पर लादकर विषम रास्ते वाले पहाड़ों से होकर वह लगातार 03 घंटे तक भागती रही ताकि उस महिला को वह हेलीकाप्टर से किसी अन्य स्थान पर सुरक्षित पहुंचाया जा सके। इस विकट परिस्थिति में वह लोगों को राहत शिविर तक कंबल, खाना, पानी व अन्य सुविधाओं को अपने माध्यम से सेवा देती रही, उनके इस काम को लोगों ने खूब सराहा। 

ममता के इस साहसिक कार्य की चर्चा उन दिनों देश के सभी समाचार पत्रों व टीवी चैनलों के माध्यम खूब सराहा गया। इसके साथ ही नेहरू पर्वतारोहण संस्थान ने भी उनकी खूब सराहा गया। 03 जनवरी 2016 को स्टार प्लस चैनल के कार्यक्रम जिसको बॉलीवुड के महानायक श्री अमिताभ बच्चन जो कि इस कार्यक्रम को होस्ट कर रहे थे, उनके द्वारा ममता रावत को इस कार्यक्रम में बुलाया गया व उनको लोगों की मदद करने हेतु पुरस्कारित किया गया व उनके कार्य की खूब सराहना की गयी। आज ममता रावत नारी शक्ति की एक पहचान ही नहीं बल्कि खुद को कमजोर समझने वाली महिलाओं के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत है।

जागर महिला के रूप में विख्यात बसंती देवी

अपने जागर विधाओं से सबको मंत्रमुग्ध करने वाली उत्तराखण्ड एक मात्र जागर गायिका महिला बसन्ती देवी का जन्म 1953 में देवाल ब्लॉक के अंतर्गत ग्राम ल्वाणी, चमोली जनपद में हुआ। अपने जागर गीतों से अपनी विख्याति की इस पड़ाव में उन्होने साधारण जीवन के तहत कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा था। बसन्ती देवी जो कि पाँचवीं तक अपनी शिक्षा पूर्ण कर पायी थी और मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह श्री रणजीत सिंह के साथ हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात वह अपने पति के साथ जालंधर चली गयी, जहां पर कुछ समय बिताने के बाद उन्होने संगीत की शिक्षा ग्रहण की।

जब उनकी इच्छा संगीत के क्षेत्र में और आगे बढ़ने की हुई तो उन्होने संगीत की परीक्षा देने की सोची, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह इस परीक्षा में शामिल न हो सकी, इससे वह हताश हुई और कुछ दिनों बाद अपने गाँव वापस आ गयी। जिस दौरान वह अपने गाँव लौटी तो उस समय सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में आंदोलनों का दौर चल रहा था। समय के साथ ही वह भी आंदोलनों में शामिल होने लगी और आंदोलनों से प्रभावित होकर उन्होने आंदोलनों पर गीत लिखने शुरू कर दिये। आंदोलन में शामिल लोगों को एकत्रित कर नुक्कड़, गीत व जागर करने लगे, जिससे लोग उनसे बहुत प्रभावित होने लगे और उनके गीतों की खूब प्रशंसा होने लगी। लोगों के निवेदन पर उन्होने आगे संगीत की शिक्षा लेने की सोची।

1996 में स्वर परीक्षा में शामिल होने के लिए गयी और सफलता भी मिली, जिसके बाद उनको आकाशवाणी पर गायन के लिए आमंत्रित किया गया। रेडियो के उस दौर में जब लोगों तक उनकी आवाज पहुंची तो पूरे उत्तराखण्ड में उनकी प्रशंसा होने लगी। उन दिनों लोग ज़्यादातर रेडियों पर निर्भर होते थे। हर रोज जब उनकी प्रस्तुति आकाशवाणी पर प्रसारित की जाती थी तो लोगों में भी उनके गीतों का बेसब्री से इंतजार रहता था।
1998 में पहली बार गढ़वाल महासभा ने उनको गायन के लिए आमंत्रित किया। यह बंसन्ती देवी का पहला लोकमंच कार्यक्रम था। यहाँ पर लोगों ने उनके गायन को सामने देखकर लोगों में काफी उत्साह था। यहाँ पर गायन के बाद लोगों ने उनकी प्रस्तुति की खूब सराहना की। आज भी उत्तराखण्ड में जागर प्रस्तुति के लिए उनको सबसे पहले स्थान दिया जाता है। जिसके कारण यह भी है कि वह उत्तराखण्ड की पहली ऐसी महिला है जिसने जागर में अपनी विख्याति बखूबी निभाई है।

बसन्ती देवी ने पूरे उत्तराखण्ड में अपनी गायन ख्याति से सबको मंत्रमुग्ध किया ही इसके साथ ही कारोबार क्षेत्र में भी उनको ब्रांड अम्बेस्ड़र बनाने की होड लगी। वर्तमान में वह उत्तरांचल ग्रामीण बैंक की ब्रांड अम्बेस्ड़र हैं। इसके साथ ही उनको अखिल गढ़वाल सभा देहरादून, रूपकुंड महोत्सव देवाल, पंडित विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान देहरादून, उत्तराखण्ड शोध संस्थान देहरादून व उत्तरायणी जन कल्याण समिति बरेली द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

पारम्परिक लोक संगीत व जगरों में उनकी संवेदना तो रही ही है, इसके साथ ही उनके पहनावे में भी उत्तराखण्ड की पारम्परिक संस्कृति व भेष-भूषा अपने जीवन के लोक पारम्परिक स्तर पर जीना ही पसंद कराते हैं।

औली


शीतकालीन शीतकालीन व हिमक्रीडा के लिए विश्व में प्रसिद्ध औली चमोली जिले के अंतर्गत जोशिमठ से 15 किमी0 व 2500 से 3250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ हिमपात और हिमक्रीडा के लिए शीतकालीन में हजारों की संख्या में पर्यटक दूर-दूर से आते हैं। प्रकृति के सौन्दर्य से सुसज्जित औली में 5 किमी0 लंबे और 2 किमी0 चौड़े इस क्रीडा केंद्र में विश्व की आधुनिकतम क्रीडा उपकरणों की उचित व्यवस्था की गयी है। देश-विदेश से यहाँ पर्यटक आते रहते हैं व अपने साहसिक करतबों का प्रदर्शन करते हैं। इस पर्वत पर मखमली घास व पुष्प पाये जाते हैं साथ ही बुग्याल के लिए भी औली जाना जाता है।

माह जनवरी से मार्च तक यहाँ विविध साहसिक खेल आयोजित होते हैं। गढ़वाल मण्डल विकास निगम द्वारा यहाँ पर रज्जु मार्ग का भी निर्माण किया गया है, जिसकी लंबाई लगभग 4200 मीटर है। औली से प्रकृति के नजारे को देखकर मन को जो शांति और हर्षौल्लास की अनुभूति प्राप्त होती है। यहाँ से नन्दा देवी पर्वत, कामत पर्वत, त्रिशूल पर्वत व अन्य बर्फीली चोटियों के सौन्दर्य से नजरें आसानी से नहीं हटती।

औली से 41 किमी0 दूर नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान है। यहाँ से जोशिमठ मार्ग से बद्रीनाथ, तपोवन व गोपेश्वर के लिए भी मोटर मार्ग हैं। यहाँ पर चोटियों की ऊपरी-निचली ढलानों के मार्गों से यहाँ की यात्रा की जा सकती है। यहाँ पर गहरी ढलान लगभग 1,642 फुट व ऊँची चढ़ाई 2625 फुट पर है। यहाँ पर रुकने की उचित व्यवस्था है, इसमें गढ़वाल मण्डल विकास निगम का अतिथि गृह है।

औली बहुत ही अठिनाइयों भरा पर्यटन स्थल है। जो भी पर्यटक यहाँ घूमने आते हैं उनको मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ होने अति आवश्यक है। औली जो कि अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित है, तो ठंड भी यहाँ बहुत होती है, जो भी पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं वे अत्यधिक गर्म कपड़े, जैकेट, दस्ताने, गर्म पैंट, व गर्म जुराबें होनी बहुत आवश्यक है। इसके साथ ही घूमने के लिए सिर और कान को भी पूर्ण रूप से ढक लें, ताकि ठंडी व बर्फीली हवाओं का असर कम पड़े। बर्फ कि सफ़ेद चादर से ढके पर्वतों को नग्न आँखों से निहारने पर कुछ कठिनाई और मुश्किलों का सामना जरूर करना पड़ सकता है, जिसके लिए काले चश्मों का प्रयोग उचित रहेगा।

यहाँ पर घूमने आए पर्यटकों को अपने शारीरिक संतुलन का भी विशेष ध्यान रखना होता है। ठंड में शरीर की नमी कम होने के कारण शरीर में समस्या उत्पन्न होने लगती है, जिससे बचाने के लिए निरंतर पानी का सेवन कर, अन्य लाभकारी तरल (जूस) का प्रयोग करें।

गढ़वाल के 52 प्राचीन गढ़

चाँदपुर गढ़ (चाँदपुर) चाँदपुर गढ़ का इतिहास ही अपने आप में लोकप्रिय व एतिहासिक रहा है। खश गढ़पति सूर्यवंशीय भानुप्रताप पाल की राजधानी उसके बाद पँवार वंश के संस्थापक कनकपाल की राजधानी रही। इसी वंशावली के अनुसार अजयपाल यहाँ 37 पँवार नरेशों ने शासन किया। इसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि को समझते हुए 2004 में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसका जीर्णोद्वार किया।

चौंड़ागढ़ (चाँदपुर) इस गढ़ के बारे में उत्तराखंड के लोगों में एक लोकोक्ति "तोपलों की तोप-ताप, चौंडलियों को राज, चौंडाल ठाकुरीगढ़" से ही इसकी विशेषता जानी जाती है।

तोपगढ़ (चाँदपुर) प्रतापी गढ़पति तुलसिंह जिसने तोप ढलवायी थी, इसे तोपल ठाकुरी गढ़ के नाम से भी जाना गया।

राणिगढ़ (चाँदपुर) खाती ठाकुरी गढ़।

कोलपुरगढ़ या कौलपुरगढ़ (चाँदपुर) कोब गाँव के कुछ दूरी पर कौनपुरगढ़ है, जहाँ प्राचीन अवशेष मिले, जिसके बारे में यह कहा गया कि यह राजा कनकपाल का गढ़ था।

बधाणगढ़ (बधाण) यह गढ़ पिंडर नदी के किनारे बधाणी ठाकुरों का गढ़ रहा है।

लहुबागढ़ (चाँदपुर) रामगंगा कि बायीं ओर स्थित है। नदी से लंबी सुरंग ही इसका अस्तित्व मिलता है। दिलेश्वर सिंह और प्रमोद सिंह यहाँ के प्रतापी गढ़पति थे।

जोन्यगढ़ (अजमीर पल्ला) सेनापति माधो सिंह भण्डारी ने पहली बार युद्ध में जोन्यगढ़ जीता।

ईड़ागढ़ (रवाई, बड़कोट) इस गढ़ के बारे में दो मत हैं, जिसमें पहला कर्णप्रयाग-नौटी मोटर मार्ग (आदिबद्री के समीप) पर मजियाड़ा गाँव के पास टीले जहाँ प्राचीन ईड़ा-बधाणी गाँव था वहीं ईड़ागढ़ था। दूसरा मत रवाईं का यह गढ़ किसी रुपचन्द नमक ठाकुर द्वारा बनाया गया था।

धन्यागढ़ (ईड़वल्स्यूं) धौन्याल ठाकुरी गढ़।

साबालीगढ़ (मल्ला सलाण, साबली) साबालिया बिष्टों का गढ़।

गुजड़गढ़ (मल्ला सालाण) सिली गाँव से गढ़ तक सोपानयुक्त सुरंग, लगभग छः घेरे में गहरी खाइयाँ तथा दुर्ग के ध्वंस अवशेष विधमान हैं।

बदलपुर गढ़ (तल्ला सालाण) चिणबौ से ऊपरी गढाधार पर्वत जहाँ गढ़ के अवशेष विराजमान है।

दशौलीगढ़ (दशौली) यह गढ़ राजा मानवर का गढ़ रहा है।

देवलगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का पूरा नाम वित्वाल के नाम से जगत गढ़ था। 12वीं शताब्दी में कांगड़ा नरेश देवल के नाम से इस गढ़ का नाम देवलगढ़ रखा गया। इस गढ़ को राजा अजयपाल ने अपने अधीनस्थ कर लिया था।

नायलगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ अंतिम ठाकुर भग्गु का  था। यह कठलीगढ़ के समीप है।

अजमेरी गढ़ (गंगसलण) यह गढ़ मुख्य रूप से चौहनों व पयालों का गढ़ रहा है। इस गढ़ को हुसैनख़ान टुकड़िया ने लूटा था।

कोलीगढ़ (देवलगढ़) यह गढ़ बछ्वाण ठाकुरी के अंतर्गत रहा है।

लोइगढ़ (देवलगढ़) इस गढ़ का वर्तमान नाम ल्वैगढ़ है।

नवासुगढ़ (देवलगढ़) नावसु गाँव के अंतर्गत अकालगढ़ के रूप में भी जाना जाता है, परंतु इस बारे में अभी को पूर्ण साक्ष्य नहीं है।

भुवनागढ़ (देवलगढ़) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

लोधाण्यागढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

हियणीगढ़ उल्लेख स्पष्ट नहीं।

डौणीघआनगढ़ भुवनागढ़ के बाद इस गढ़ का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण उल्लेख स्पष्ट नहीं।

नागपुरगढ़ (नागपुर) यह गढ़ अंतिम ठाकुरी राजा भजन सिंह का था। इस गढ़ में नाग देवता का मंदिर स्थापित है।

कोटागढ़ (जौनपुर) इस गढ़ का वर्णन काँड़ागढ़ के नाम से उल्लेख मिलता है, जिसमें बिष्ट ठाकुरी गढ़ भी कहा गया है।

कंडारागढ़ (नागपुर) दुमागदेश नरेश मंगलसेन जो कि एक प्रतापी राजा था, लेकिन बाद में अजय पाल ने इस गढ़ पर आक्रमण कर जीत लिया। हालांकि इस गढ़ के बारे में भी अनेक मत हैं।

लंगूरगढ़ (गंगा सलाण) इस गढ़ में भैरव का मंदिर होने के कारण इस गढ़ को भैंरव गढ़ भी कहा जाता है। इस गढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज रहा।

पावगढ़ या मावगढ़ (गंगा सलाण) गढ़वाल के सात गढ़ों में से एक बताया जाता है। भानधा और भानदेव असवाल का शासन रहा।

इडवालगढ़ (बारहस्यूं) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

बागड़ीगढ़ (गंगा सलाण) बागड़ी या बगुड़ी (नेगी) जाति का गढ़।

गड़कोटगढ़ (गंगा सलाण) बगडवाल बिष्टों का गढ़।

खत्रीगढ़ (रवाई) गोरखा आक्रमण से पहले यह गढ़ स्थापित पावर नदी के दायीं तट पर स्थित है।

जौनपुरगढ़ (जौनपुर) यमुना के बाएँ किनारे पर स्थित यह गढ़ के पास अगलार-यमुना का संगम है।

फल्याणगढ़ (बारहस्युं) इस गढ़ के गढ़पति शमशेर सिंह के अधीन रहा, उन्होने इस गढ़ को फल्याण ब्राह्मणों को दान दे दिया था।

नैलचामिगढ़ (भील्लंग) स्वाति ग्राम क्षेत्र मेन संगेला बिष्टों का गढ़।

बारहगढ़ (भरदार) मन्दाकिनी की दायीं ओर लस्तूर तथा डिमार की उपरली घाटी में स्थित है।

कठूडगढ़ (चिल्ला) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरदरगढ़ (भरदार) अलकनंदा की दायीं ओर स्थित यह गढ़ तीन ओर से चट्टान, उत्तर से प्रवेश का दुर्गम मार्ग। कहा जाता है कि मृत्यु दण्ड वाले बंदियों को यहाँ छोड़ा जाता था।

चौंदकोटगढ़ (चौंदकोट) प्राचीरों, खाइयों सहित गढ़ों के अवशेष यहाँ विधमान हैं।

बनगढ़ (बनगढ़) अलकनन्दा की दायीं ओर, यह गढ़ सोनपाल के अधीन रहा। यहाँ पर राजराजेश्वरी का प्राचीन मंदिर है।

भिलागगढ़ (भील्लंग) 24वां पँवारवंश राजा सोनपाल का शासन रहा। खाल ग्राम में गंवानागाड़ व भिल्लंगना के संगम पर स्थित है।

हिंदाऊगढ़ (भील्लंग, हिंदाव) चांजी गाँव के समीप भवन के अवशेष से इस गढ़ का अस्तित्व सामने आया।

कुईलीगढ़ (नरेन्द्रनगर) भागीरथी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। गढ़ में घंटाकर्ण का मंदिर भी है।

सिलगढ़ (भरदार, सिलगढ़) मन्दाकिनी नदी की दायीं ओर कोटग्राम के समीप स्थित है। इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सबल सिंह सजवाण रहे।

चंवागढ़ (उदयपुर, मन्यार) उल्लेख स्पष्ट नहीं।

भरपूरगढ़ (नरेंद्रनगर) गंगा की दायीं ओर, तैडीगढ़ के पश्चिम क्षोर पर स्थित है। इस गढ़ के गढ़पति अमरदेव तथा तैड़ीगढ़ के गढ़पति तनया तिलोमा थे।

मुंजणीगढ़ (नरेन्द्रनगर) इस गढ़ के अंतिम गढ़पति सुलतान सिंह सजवाण थे।

उपुगढ़ (उदयपुर) कफ़्फ़ु चौहान इस गढ़ के गढ़पति थे, जिसे राजा अजयपाल ने अपने अधीन किया था।

मूंगरागढ़ (रवाई) इस गढ़ तीनों दिशाओं में यमुना बहती है तथा दक्षिण से इस गढ़ तक पहुँचने के लिए चट्टान काटकर चढ़ने के लिए सोपान बने हैं, इस गढ़ में अब रौंतेला ठाकुरों के घर हैं।

रेकागढ़ (प्रतापनगर) इस गढ़ का नाम उपली रमोली के एक गाँव के नाम पर है।

चोलागढ़ (प्रतापनगर) मोल्या गाँव के समीप इस गढ़ के अन्तिम गढ़पति घांगू रमोला थे।

पैनखंडागढ़ (पैनखंडा) यह गढ़ बुठेर जाति का गढ़ माना जाता है।

58 सिद्धपीठों में शामिल है हरियाली देवी का मंदिर

रुद्रप्रयाग स्थित जसोली में माँ हरियाली देवी का मंदिर स्थित है। यह मंदिर जसोली से 08 किमी0 की दूर पर स्थित है। स्थानीय तौर पर माँ हरियाली का मंदिर बहुत ही लोकप्रिय व कल्याणकारी है। मंदिर समुद्रतल से लगभग 800 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर में क्षेत्रपाल और हीट देव की प्रतिमां विराजमान है।

58 सिद्धपीठ मंदिर में से एक माँ हरियाली का मंदिर भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महामाया देवकी कि सातवीं संतान के रूप में पैदा हुई थी। मथुरा नरेश कंश ने महामाया को पटक कर मारना चाहा, जिसके फस्वरूप उनके शरीर के अंश पूरी पृथ्वी में जहां भी गिरे उन स्थलों को सिद्धपीठ के नाम से जाना गया। इसी तरह इस स्थान पर माँ हरियाली का हाथ गिरा, जिसके बाद यह स्थान हरियाली देवी के नाम से जाना गया।

माँ हरियाली मंदिर में जन्माष्टमी और दिवाली के पवित्र अवसर पर यहाँ बहुत बड़ा मेला आयोजित किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग शामिल होने आते हैं। उस दिन हरियाली देवी की प्रतिमां को यहाँ से 07 किमी0 दूर हरियाली काँटा ले जाया जाता है, जहाँ डोली के साथ-साथ भक्तों की टोली भी उनके साथ भ्रमण के लिए निकलती है।

माँ हरियाली की डोली जब परिक्रमा के लिए भ्रमण पर निकलती है, तो यात्रा में शामिल भक्तों को कड़े नियमों का पालन करना अतिआवश्यक होता है। इस यात्रा में महिलाओं का शामिल होना वर्जित माना जाता है, तो वहीं अन्य यात्री यात्रा से पूर्व माँस, लहसुन और प्याज का पूर्णरूप से त्याग करते हैं। सालभर मंदिर में भक्तों का जमावड़ा रहता है। कहा जाता है कि जसोली क्षेत्र में स्थित मंदिर शंकराचार्य के समय से निर्मित है। यात्रा शंकराचार्य के समय से ही आयोजित होती आ रही है। यात्रा में शामिल भक्त नंगे पाँव माँ की डोली के साथ भ्रमण हेतु निकलते हैं।

यात्रा के दौरान देवी का दर्शन कर उसी दिन भक्तों को वापस आना होता है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार जसोली में देवी का ससुराल जहाँ माँ का मंदिर स्थित है, जबकि हरियाली देवी काँठा में मायका है। पूरे वर्षभर में देवी अपने मायका धनतेरस के अवसर पर एक ही बार जाती है। यात्रा का पहला पड़ाव कोदिमा गाँव व दूसरा बाँसों गाँव है।