उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी पहचान जिस संगीत की साख पर बनाई है वह अपने आप में पहाड़ की परम्पराओं को दर्शित करता है। अपने मौलिक पहचान को पहाड़ के उन सभी परम्पराओं से जोड़े रखा है, जो उनके गानों में अक्सर सुनने को मिलता है।
"डांडी कांठी को हयून गौलिगी होलु, मेरा मैत कु बोण मौलिगी होलु" पहाड़ी नारी की विशेषता हो या पुरुष वर्ग के व्यक्तित्व को दर्शाता उनका संगीत लोगों के कंठ पर हमेशा ही सुना जा सकता है। पहाड़ की परंपरा हो या वहाँ का जन-जीवन, उनके गीतों में एक सचित्र वर्णन आंक्षाओं पर ऐसा उतर जाता है कि मानों शब्दों में जीवन्त वाणी पुकारती हो।
पहाड़ की खूबसूरती हो या प्रकृतिक संरचना की विशेषता को निखारना उनके संगीत का पहला और अहम हिस्सा रहा है। अपने अधिकतर गानों में उन्होने पहाड़ की भूमिका को अहम स्थान दिया गया। हिमालय का सौन्दर्य और लोक जनजीवन को अनुपम शब्दों से बखूबी निखारकर लोगों को मनमोहित किया है।
"मेरे को पहाड़ी मत बोलो जी, मै तो देहरादून वाला हूँ" इस गाने के माध्यम से उन्होने पहाड़ के उन लोगों को एक तरफ से समझाने की कोशिश की है कि देहरादून के साथ ही पहाड़ के लोग किसी भी बड़े शहर में क्यों न हो अपनी संस्कृति, अपनी बोली, अपने लोग, अपनी परम्पराओं को नहीं भूलना चाहिए। इसके साथ ही पहाड़ से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है, जिनमें देहरादून में अधिकतर पहाड़ी लोग अपना डेरा बसा चुके हैं, लेकिन आज उन पर रंग ऐसा चढ़ा है कि पहाड़ी कहने पर जैसे उनको शर्म आने लगती हो देखा जाए तो देहरादून में पूरा ही उत्तराखंड है और उत्तराखंड में पहाड़ के ही लोग बसे हैं तो ऐसे में कैसे हम शहरी हो गए कैसे अपने पहाड़ी परम्पराओं को भूलकर शहरी अंदाज में बोलने लगे हैं।
टिहरी डैम पर जिस संगीत का उन्होने अपने शब्दों में बयां किया वो आज भी लोगों के दिल को रोने पर मजबूर कर देता है। लगभग 40 वर्षों से अधिक के इस सफर में उन्होने स्वलिखित और 5 हजार से ज्यादा गीत भी हैं। लोक संस्कृति और लेखों की संख्या करीब 5 हजार से ज्यादा है।
यहाँ तक कि नरेंद्र सिंह नेगी जी ने उत्तराखंड फिल्मों में भी अपना अहम योगदान दिया है। जिनमें कुछ फिल्म फ़्योंली (1983 गायन), घरजंवें (1985 गीत-संगीत, गायन), बेटी-ब्वारी (1988 गीत, संगीत, गायन), बंटवारु (1989 गीत, संगीत, गायन), फ़्योंली ज्वान ह्वेगी (1992 गीत, संगीत, गायन), छम घुंगरू (गीत, संगीत, गायन), जै धारी देवी (1997 गीत, संगीत, गायन), सतमंगल्या (1999 गायन), औंसी की रात (2004 गीत, संगीत, गायन), चक्रचाल (2006 गीत, संगीत, गायन), मेरी गंगा हौली त मैंमू ओली (2008 गीत, संगीत, गायन) आदि प्रमुख हैं।
यौहारों और ऋतु परम्पराओं की विशेषता को भी अपने गानों में खूब ढाया है। सामाजिक मुद्दों, पहाड़ आर्थिक व्यवस्था, नारी व्यक्तित्व व पहाड़ से लोगों के पलायन जैसी समस्याओं को स्वाभाविक रूप से केन्द्रित किया है। पहाड़ की हर एक पहल को उन्होने अपने स्वर के जरिये चित्रण किया है। नेगी जी सम्मान के हकदार हैं, पहाड़ में उनका सम्मान हमेशा ही रहेगा।