उत्तराखंड की लोक गाथाओं में जब भी वीरता और बलिदानी की वीर गाथा सुनी जाती है तो उसमें माधो सिंह भण्डारी का नाम जरूर जुड़ जाता है। इस वीर को न केवल वीरता के लिए जाना गया बल्कि उसके त्याग व स्वाभिमान की गाथा को सुनकर आज भी लोगों का दिल सहम पड़ता है। मैंने जब इस वीर की गाथा एक गाँव के लोक संस्कृति कार्यक्रम के तहत जब देखि तो वहाँ बैठी औरते और पुरुष जो इस कार्यक्रम को देख रही थी, उनकी आँखें नरम थी, शायद ही उस दौरान कोई ऐसा व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं था, जिसकी आँखों में आँसू न दिखाई दे रहा हो। उत्तराखंड की संस्कृति में इस बलिदानी वीर की गाथा इतिहास के लिए अमर हो गयी।
माधो सिंह भण्डारी का जन्म टिहरी जनपद के मलेथा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सोणबाण कालो भण्डारी था। उनके पिता वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी बुद्धिमता और कौशलता को देखते हुए उस दौरान के तत्काल गढ़वाल नरेश ने उनको बड़ी जागीर भेंट की। माधो सिंह भी अपने पिता की बहादुरी और स्वाभिमानता को देखकर छोटी उम्र में ही श्रीनगर के महिपति शाह की सेना में भर्ती हो गए। उनसे प्रभावित होकर गढ़वाल नरेश ने उनको अपनी सेनापति के रूप में नियुक्त किया।
माधो सिंह सेनापति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के साथ ही वहाँ के स्थानीय लोगों के सेवा में भी जुटने लगे। लोग भी उनसे खासा प्रभावित हुए। माधो सिंह ने कई नए क्षेत्रों में राजा के राज्य विस्तार से लेकर अनेक किलों का निर्माण करवाया। उस दौरान मलेथा गाँव की जमीन खेती के लिए उपयोगी नहीं थी और न ही वहाँ अन्नाज की पैदावार हो पाती थी, जिसके कारण गाँव में लोग भूखे प्यासे रहने लगे। गाँव में अकाल की आकस्मिक स्थिति उत्पन्न होने लगी।
माधो सिंह भण्डारी एक बार जब अपने गाँव वापस आए तो गाँव में अकाल जैसी परिस्थिति से जूझ रहे लोगों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। राजमहल में रहते हुए उनको काफी समय बीत चुका था। भोजन से लेकर शान-बान की शोहरत से परिचित माधो सिंह भण्डारी जब अपने घर पहुंचे तो उन्होने अपनी पत्नी से खाना मांगा, खाना उचित न होने पर उन्होने पत्नी पर गुस्सा हुए, जिसके बाद पत्नी ने उनको बदहाली खेतों को दिखाया तो वो बैचेन दिखाई दिये, तत्पश्चात उन्होने खेतों और गाँव की खुशहाली वापिस लाने के लिए प्राण किया।
गाँव के निचले भाग में चंद्रभागा नदी बहती है, लेकिन बड़ी चट्टानों और पर्वतों के बीच से नदी को खेतों तक लाना आसान नहीं था, जिसका सिर्फ एक ही रास्ता था कि सुरंगों के निर्माण करके पानी को खेतों में प्रवाहित किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए माधो सिंह भण्डारी ने सुरंग खोदने विशेषज्ञों और गाँव वालों की मदद से शीघ्र ही कार्य शुरू किया। इस कार्य में महीनों गुजर गए, कड़ी मेहनत के बाद सुरंग का निर्माण किया गया। सुरंग के ऊपरी सतह पर मजबूत पत्थरों व लोहे की कीलों का प्रयोग किया गया। इसकी मजबूती का अहसास आज भी भीषण प्रकृतिक आपदा का आने के बाद भी सुरंग को कई से भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सुरंग निर्माण का कार्य सम्पूर्ण हो गया था लेकिन संकट अभी भी टला नहीं था। पानी सुरंग के अंदर प्रवेश नहीं कर पाया, जिसको लेकर माधो सिंह भण्डारी परेशान रहने लगे। एक रात सपने में किसी अदृश्य चमत्कारी ने उनको सुरंग में पानी के प्रवेश को लेकर पुजा-अर्चना के साथ ही अपने पुत्र की बलि देने को कहा। जिसके बाद माधो सिंह भण्डारी कई ज्यादा परेशान हो गए कि आखिर पुत्र की बलि देना उचित होगा, वो पहले तो इसके लिए तैयार नहीं हुए, गाँव वालों कि व्याकुलता व मजबूरी को देखते हुए उन्होने अपने एक मात्र पुत्र गजे सिंह को यह बात बताई पुत्र ने अपनी सहमति दे दी, तत्पश्चात उन्होने अपने पुत्र की बलि देकर अपने पुत्र को गाँव वासियों के हित में बलिदान कर दिया।
पुत्र के सर को सुरंग के मुख की ओर रख दिया गया और इस बार जब पानी मोड़ा गया तो इस बार पनि सुरंग से होते हुए उनके पुत्र के सर को अपने बहाव में बहकर ले गया और खेतों में प्रवाहित हो गया। इस बलिदान के बाद से आज तक मलेथा की खेती उपजाऊ और खुशहाली है।
माधो सिंह भण्डारी की निस्वार्थ जनसेवा व बलिदान की भावना आज भी अनुकरणीय है। उनके इस बलिदान को आज सम्पूर्ण उत्तराखंड शायद ही कभी भूल पाये, उनके इस बलिदान का कर्ज शायद ही मलेथा अदा कर पाये, लेकिन उनकी इस वीर गाथा को हम सदियों तक याद करते रहेंगे।