हमारे पौराणिक परंपरागत साधन आज के हाइटेक युग में धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खो रहा है। इन्हीं साधनों में से एक घराट भी है। घराटों का आधुनिकीकरण न होने के कारण उनका अस्तित्व विलुप्त होने लगा है। पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं व मँड़ुआ पीसने का एक मात्र साधन था। घराट संचालक अनाज पीसने के बदले उसमें से थोड़ा बहुत पिसा हुआ अनाज लगभग आधा किलो वसूली करता था।
घराट से पीसा हुआ आटा पौष्टिक होता होने के साथ ही पहाड़ की संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है। घराट नदी के एक छोर पर स्थापित किया जाता है। जिसमें नदी के किनारे से लगभग 100 से 150 मीटर लंबी नहरनुमा के द्वारा पानी को एक नालीदार लकड़ी (पनाले) के जरिये जिसकी ऊंचाई से 49 कोण पर स्थापित करके पानी को उससे प्रवाहित किया जाता है। पानी का तीव्र वेग होने के कारण घराट के नीचे एक गोल चक्का होता है, जो पानी के तीव्र गति से घूमने लगता है। वी आकार की एक सिरा बनाया जाता है जिसमें अनाज डाला जाता है ओर उसके नीचे की ओर अनाज निकाल कर पत्थर के गोल चक्के में प्रवाहित होकर अनाज पीसने लगता है।
आधुनिक युग में बिजली से चलाने वाली चकियों के कारण घराट चक्की बन होने के कगार पर आ चुकी है। इस ओर राज्य सरकर द्वारा कोई योगदान व योजना का न होना भी एक कारण है। जिस दौर में लोग घराट पर निर्भर करते थे उस दौरान न तो कोई बिजली से चलाने वाली चक्की थी और न ही डीजल से चलने वाली कोई चक्की दूर-दूर तक दिखाई देती थी। हालांकि घराट तक पहुँचने के लिए लोगों को काफी दूरी का समय तय करना पड़ता था। इसके साथ ही अब नदियों पर बांध व अन्य जल परियोजनाओं के निर्मित होने से नदियों में इतना पानी नहीं बचा कि कहीं घराट चक्कियों का अंश बच सके।
घराटों से पीसा हुआ अनाज भले ही पौष्टिक हो लेकिन समय कि अत्याधिक्ता की अपेक्षा बिजली से चलने वाली चक्की में समय कम लगता है, इस ओर अब लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित होने लगा है। इसी कारण उत्तराखंड के अनेक पारम्परिक संसाधनों की विलुप्ति तेजी से हो रही है। हमारे अपने साधनों की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो रही है।