उत्तराखंड की हिमालयी महाकुंभ की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा का इतिहास

माँ नंदादेवी शक्तिपीठ मंदिर, नौटी
उत्तराखंड धार्मिक स्थलों से प्रसिद्ध है। यहाँ धार्मिक स्थलों के अतिरिक्त स्थानीय प्रचलित यात्राओं में राजजात यात्राओं का बहुत अधिक महत्व है, जो प्राचीनकाल से ही परम्पराओं के विधिवत रूप में संचालित की जाती है। राजजात यात्रा की परंपरा बहुत पुरानी है, जिसका आरंभ गढ़वाल के गढ़नरेशों द्वारा किया गया था। इस यात्रा को सन 1986, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987, 2000 तथा सन 2014 में सम्पन्न हुई। इस सांस्कृतिक यात्रा का आयोजन बारहवें वर्ष में होता है। इस यात्रा का मुख्य आकर्षण चार सींगों वाला मेंढ होता है, जिसको स्थानीय बोली में खाड़ू कहा जाता है।

यात्रा की अगुवाई करता चार सींगों वाला मेंढ (खाड़ू)
श्री नन्दा देवी राजजात यात्रा 12 वर्ष के अंतराल में ही प्रारम्भ होती है। कई गावों को जोड़ते हुए पहाड़ी दुर्गम रस्तों के उतार-चढ़ाव की रोमांचक इस यात्रा को 21 दिन में लगभग 280 किमी0 की दूरी के तहत पूरी की जाती है। लोकगीतों व लोक परम्पराओं के अनुसार यह यात्रा आठवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई। उत्तराखंड में नन्दा देवी के अनेकों मंदिर और प्राचीन अस्तित्व के अवशेष अब भी जीवंत है।

नन्दा देवी राजजात यात्रा का शुभारंभ छंतोली तथा पथ मार्गदर्शक मेढ़े का चयन चमोली जिले के अंतर्गत नौटी गाँव से किया जाता है। नौटी के नन्दा मंदिर में पूजा-अर्चना के पश्चात इस यात्रा का आरंभ किया जाता है। तत्पश्चात इस यात्रा में अनेक गावों से डोली-छंतोली व लोगों का जुड़ना भी शुरू हो जाता है। इस यात्रा को हिमालय यात्रा के नाम से भी जाना जाता है।

माँ नन्दा देवी की डोली जिसमें उनके स्वरूप को दिखाया गया है
स्थानीय वेदांतों व जगरों की पौराणिक गाथाओं के अनुसार चाँदपुरगढ़ (चमोली) के राजा भानुप्रताप की दूसरी पुत्री  जिसका नाम नन्दा था। उसका विवाह शिव से हुआ और उनकी बड़ी बहन का विवाह धारानगरी के कुँवर कनकपाल से हुआ। एक अन्य मत यह भी है कि कन्नौज के राजा यशोधवल की रानी बल्लभा, चाँदपुर के राजा कि पुत्री थी। जब चाँदपुर गढ़ की ईष्टदेवी नन्दा का उन्हें दोष लगा तो राज्य तो राज्य में सूखा तथा अन्य प्रकृतिक प्रकोपों से राज्य में त्राहि-त्राहि मच गयी। बाद में ज्ञात हुआ कि रानी के पितृगृह की देवी का दोष है और इसका निवारण यहाँ की राज जात यात्रा में सम्मिलित होकर ही किया जा सकता है। इस प्रकार उन्होने राजजात यात्रा का आयोजन किया था। दुर्भाग्यवश इस धार्मिक यात्रा में परम्पराओं के उल्लंघन होने के कारण बल्लभा सहित राजा, सैनिक तथा सेवक-सेविकाएं रूपकुंड के भीषण तूफान के कालग्रसित हो गए थे। कहा जाता है कि रूपकुंड और पातरनचौनियाँ में आज भी मानव अस्थियों के अवशेष मिलते हैं, जो कि वर्षों पूर्व इस यात्रा में भीषण तूफान के कालग्रस्त हो गए थे। 

इस यात्रा को भागवत नन्दा को उसके मायके से ससुराल तक पहुंचाने कि भावनात्मक विदाई पर आधारित है। इस यात्रा की अगुवाई चार सींग वाले मेढ़े पर भगवती नन्दा के लिए आभूषण, शृंगार सामाग्री, अन्न, चबेना तथा फल आदि लाद दिये जाते हैं। इस यात्रा में हजारों यात्रियों का सम्मिलित होना यह एतिहासिक धार्मिक यात्रा का प्रमाण है। पूर्व में राज यात्रा का आयोजन चाँदपुर गढ़ी के नरेश कराते थे, किन्तु जब चाँदपुर गढ़ी से राजधानी को परिवर्तित किया गया तो कांसुवा के राजकुंवर इस परंपरा का निर्वाह कराते आ रहे हैं। कांसुवा गाँव चाँदपुर गढ़ी के ठीक सामने स्थित है। इस गाँव के क्षेत्र से ही चार सिंग मेंढ का जन्म होता है जो कि केवल 12 वर्ष के अंतराल में ही जन्म लेता है।

यात्रा में सम्मिलित छनतोलियाँ व जनसैलाब
चौसिंगया मेढ़े को नौटी में नन्दा देवी के पौराणिक मंदिर में रखा जाता है, विधिवत पुजा अर्चना के बाद रात भर जागर और पारंपरिक मंगलगीत गाये जाते हैं। अगले दिन वाध-यंत्रों और गाजे-बाजे के साथ नन्दा देवी कि विदाई के करुण गीतों के साथ राजजात यात्रा का शुभारंभ किया जाता है। यात्रा पहला पड़ाव ईडाबधानी से है। यात्रा पड़ाव में जो गाँव आते हैं, उनके द्वारा इस यात्रा का स्वागत किया जाता है। ईडाबधानी को नन्दा का ननिहाल माना जाता है।

यात्रा नौटी से ईडाबधानी और फिर वापस कँसुआ गाँव रात्री पहुँचकर विश्राम करती है। यहाँ भराड़ी देवी तथा कैलापीर देवताओं के मंदिर हैं। इस यात्रा में करीब 12 थोकी ब्राह्मणो, 14 सयानों, पाड़वों तथा यात्रा में सम्मिलित होने वाले 200 से अधिक देवी-देवताओं से संबन्धित पक्षों को भी पर्याप्त सम्मान दिया जाता है। कांसुवा से यात्रा चाँदपुरगढ़ी के किले पर पहुँचती है, तो नंदादेवी के गणों के पश्वा छंतोली को लेकर किले कि परिक्रमा करते हैं। चाँदपुर गढ़ी के पश्चात यात्रा तोप, उज्जवलपुरआदि गावों से होकर गुजरती है। यात्रा सेम गाँव पहुँचती है यहाँ यात्रा रात्री विश्राम कर सेम से कोटी के लिए चढ़ाई का रास्ता चढ़ती है। मार्ग में धारकोट, घंडियाल, सिमतोली गांवों में नन्दा देवी की पुजा अर्चना करके भेंड दी जाती है। इस अवसर पर स्थानीय महिलाओं द्वारा विदाई गीत गाये जाते हैं और विदाई के इस दौरान महिलाओं का भावुक होना भी स्वाभाविक हो जाता है। 

यात्रा को विदा कराते समय भावुक होते लोग
कोटी से विदा होकर यात्रा धतौड़ा तक तीव्र चढ़ाई है। रास्ते में बांज और बुरांश का घना जंगल है। इसके बाद यात्रा भगोती गाँव पहुँचती है। यह गाँव नन्दा के मायके का अंतिम गाँव है। भगोती गाँव की सीमा तथा नारायणबगड़ के समीप क्यूर गधेरा बहता है। यहीं भगवती नन्दा के मायके का आखिरी स्थान है इसके बाद नन्दा का ससुराल प्रारम्भ हो जाता है। जब नन्दा अपने मायके के इस आखिरी गाँव को पार करने लगती है तो यहाँ हृदय भावनात्मक रूप से भर आता है दृश्य ऐसा होता है कि महिलाओं के साथ-साथ यात्रा में अनेक लोगों की आँखों मे आंसुओं की भावनात्मक धारा बहने लगती है।

यात्रा का अगला पड़ाव कुलसारी है, यहाँ ससुराल पक्ष का प्रथम पड़ाव आरंभ हो जाता है। यह गाँव पिंडर नदी के समीप स्थित है। कुलसारी गाँव में देवी का श्रीयंत्र भूमिगत है, जबकि मायके पक्ष में नौटी जो यात्रा का प्रारम्भ पड़ाव है, के मंदिर में भी श्रीयंत्र है जिसकी पुजा के पश्चात यह यात्रा नौटी से प्रारम्भ होती है। कुलसारी मंदिर से इस यंत्र को निकालकर पुजा अर्चना के पश्चात फिर भूमिगत किया जाता है। यात्रा अपने अगले पड़ाव थराली होते हुए चेपड्यू तथा नंदकेसरी पहुँचती है। नंदकेसरी में नौटी व करुड़ कि नंदादेवी का मिलन होता है। नंदकेसरी से 03 किमी0 पूर्णासेरा तथा आगे देवाल है। यहाँ से देवी फल्दिया गाँव के लाटू देवता के मंदिर पहुँचती है। यात्रा का अगला पड़ाव मुंदोली पहुँचते-पहुँचते यात्रियों की संख्या में काफी इजाफा देखने को मिलता है। मुंदोली में भूमिपाल और जयपाल देवता के मंदिर हैं साथ ही नन्दा का प्राचीन कटार भी स्थापित है।

मुंदोली से यात्रा में चढ़ाई चढ़ने के बाद यात्रा लोहगंज पहुँचती है। 22 पड़ावों के बाद यात्रा अंतिम गाँव बाण पहुँचती है। इस क्षेत्र में बुग्यालों और ग्लेशियरों से घिरा हुआ मानव रहित है। बेदिनी बुग्याल, चौड़िया, कैलुआ विनायक तथा बगुवाबासा होकर यात्रा प्रसिद्ध एतिहासिक स्थान रूपकुंड पहुँचती है। रूपकुंड के ठीक ऊपर ज्यूरांगली के 5500 मीटर की  ऊंचाई के दर्रे को पार करके शिलासमुद्र तथा नीचे उतरते हुए भोजपत्र के घने जंगल, जो यात्रियों को नए संसार होने का अहसास दिलाता है। यहाँ सेकड़ों जड़ीबूटियों का भंडार है।

बेदिनी बुग्याल
राजजात यात्रा का अंतिम पड़ाव होमकुंड है। शिलासमुद्र से हिमनद को पारकर नंदाकिनी नदी के किनारे फूलों से भरी घाटी है। होमकुंड में परंपरागत व रीति-रिवाज के अनुसार पुजा-पाठ किया जाता है। इस यात्रा की अगुवाई कर रहे चार सींगों वाला मेंढ भगवती नन्दा के लिए श्रिंगार, वस्त्र और अन्न आदि सामग्री सहित वहीं छोड़ दिया जाता है। गाथाओं के अनुसार मेंढ सामग्री को लेकर स्वयं नंदपर्वत की ओर अनंत यात्रा पर चला जाता है।

21 दिनों की ऊबड़-खाबड़ और कठिन रस्तों की यात्रा करते हजारों यात्रियों का आस्था  के प्रति को और मजबूत करती है। कोई शक्ति ही है, जो इतनी कठिनाइयों को पार करके इस यात्रा के अंतिम पड़ाव जहां सांस लेना भी दूभर हो जाता हो, को बड़े साहस और आस्था के प्रति अपनी भूमिका को निभाते हैं। हिमालय की इस विशाल यात्रा के प्रति जो मानवीय, धार्मिक व सांस्कृतिक पहलुओं से साक्षात्कार कराती नन्दा देवी राजजात यात्रा  पर्वतीय संस्कृति की धार्मिक प्रभाव को परिलक्षित कराती है।