उत्तराखंड की संस्कृति की पहचान उसकी ऐतिहासिक संस्कृति से जुड़ी हुई है, जिसका विवरण गढ़वाल की 7वीं सदी का उल्लेख मिलता है। मनु के विषय में यह वर्णन मिलता है कि वे अपने माता-पिता वैवस्वत तथा पुत्र इक्ष्वाकू सहित जलप्लावन के बाद माणा आए। यहाँ उन्होने स्वराज की वृद्धि की और मनु नाम से मानसखण्ड नाम की उत्पति हुई।
सर्वप्रथम आर्य नरेश दक्ष प्रजापति जो कि ब्रह्मा के प्रथम पुत्र थे। दक्ष प्रजापति की 13 कन्याओं में सबसे बड़ी दिति और सबसे छोटी अदिति थी। अदिति से 12 देव और दिति से दैत्यों कि उत्पति हुई। आदित्यों में इंद्र बड़े तथा विष्णु (वामन) सबसे छोटे थे। इनकी उत्पति स्थल उत्तराखंड ही है। देवकालीन शासन के समय चार शासन क्षेत्रों का पता चलता है, जिनमें कैलास, अलकपुरी, देवपुरी व हिमक्षेत्र हैं, यह क्षेत्र उत्तराखण्ड के अंतर्गत ही आते हैं।
उत्तर वैदिककाल
आर्यों के छोटे-छोटे राज्य जो दो वंश मानव (मनु) से सूर्यवंश व चंद्रवंश थे। सूर्यवंश के प्रथम राजा मनु का पुत्र इक्ष्वाकू हुआ। इसी वंश में सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, दशरथ व रामचन्द्र जैसी प्रतापी राजा हुए, जबकि चन्द्र वंश का प्रथम राजा पुरुरवा थे। इनके पाँच पुत्रों ने पाँच वंशों जिनमें यदु के यादव तथा पुरू के पौरव की स्थापना की। इसी वंश में राजा भरत हुए उन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भरत का जन्म शकुंतला के गर्भ से हुआ तथा शकुंतला का जन्म कन्व ऋषि के आश्रम (कन्वाश्रम) मालिन नदी के तट पर जो कोटद्वार में स्थित है, के समीप माना गया।
मध्यकाल
उत्तराखण्ड का पौराणिक इतिहास महाभारतकाल के पश्चात ही मिलता है। इस राज्य का विस्तार सतलुज, यमुना, गंगा व काली नदी के क्षोरों से सटकर छ: छोटे-छोटे प्रदेशों से मिलकर बना। सन 340 ई0 में समुद्रगुप्त का राज्यारोहण हुआ।कर्तृपुर (वर्तमान नाम जोशिमठ) में खास राजा ने अपना शासन चारों तरफ फैला चुके थे। कार्तिकेयपुर के खास राजा से समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसका राज्य पर विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त) के राज्यकाल से स्कंदगुप्त के राज्यकाल तक सम्पूर्ण गढ़वाल-कुमाऊँ गुप्त शासकों के अधीन रहा।
गढ़वाल का इतिहास (पँवार वंश)
अजयपाल के बाद सहजपाल, बलभद्रभाल (शाह), मानशाह, सामशाह और महीपतशाह का शासन संघर्षपूर्ण रहा। महीपतशाह के राज्यकाल सन 1625-35 में संघर्ष को स्थिर करने शांत करने के लीये माधो सिंह भण्डारी और लोदी रिखोला दो वीरों को भोट भेजा गया। महीपतशाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र पृथ्वीपातिशाह के नाबालिक होने के कारण उनकी पत्नी कर्णावती ने सन 1635 एलएस 1646 तक शासन की बागडोर संभाली।
गोरखा शासन
सन 1780 ई0 में ललितशाह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र जयकृतशाह को गढ़वाल कि राजगद्दी सौंपी गयी। 1786 तक उनके राज किया उनके राज अधिकारियों के षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा और देवप्रयाग में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद प्रद्युम्नशाह कुमाऊँ से गढ़वाल आ गए और गढ़वाल के राज सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उनके छोटे भाई पराक्रमशाह ने षड्यंत्र पर षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया जिसके कारण कुमाऊँ व गढ़वाल में अव्यवस्था फैल गयी। जिसके बाद हर्षदेव के आमंत्रण पर सन 1790 ई0 में नेपाली गोरखा सेना ने गोरखा नरेश रणबहादुर के नेतृत्व में कुमाऊँ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन गढ़वाल के शौर्य के आगे उनकी न चली और लंगूरगढ़ी से आगे न बढ़ पाये।
कुमाऊँ का इतिहास (चंदवंश)
कत्युरी राजवंश तक ही पहले सम्पूर्ण उत्तराखण्ड एक ही शासन के अंतर्गत रहा, लेकिन शासन के पतन के बाद गढ़वाल के पँवारवंश और कुमाऊँ में चंदवंश का शासन स्थापित हो गया था। कुमाऊँ में चंदवंश के प्रथम राजा सोमचंद 1700 ई0 में गद्दी पर विराजमान हुए। पांवर वंश और चंदराज वंश अपने संस्थापक आठवीं सदी के आसपास बताते हैं।